भारत के पर्यावरण आंदोलन में चिपको आंदोलन (1973) एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है। यह आंदोलन ना केवल पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता का प्रतीक बना, बल्कि इसमें महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी ने इसे वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई।
आंदोलन की पृष्ठभूमि
1970 के दशक में उत्तराखंड के चमोली जिले के रेणी गांव में वनों की अंधाधुंध कटाई के विरोध में यह आंदोलन शुरू हुआ। उस समय सरकारी ठेकेदारों को बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई की अनुमति दी जा रही थी, जिससे स्थानीय समुदायों की आजीविका और पर्यावरण को खतरा था।
मुख्य नेतृत्वकर्ता
आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी, चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवकों ने किया। गौरा देवी ने गांव की अन्य महिलाओं के साथ पेड़ों से लिपटकर उन्हें कटने से बचाया।
आंदोलन की कार्यप्रणाली
ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिए अपने शरीर को ढाल बनाकर पेड़ों से लिपटने की रणनीति अपनाई। इस अनूठे तरीके से उन्होंने शांतिपूर्ण विरोध दर्ज कराया, जिससे यह आंदोलन पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुआ।
प्रमुख परिणाम
- वर्ष 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालयी क्षेत्रों में वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया।
- इस आंदोलन से प्रेरित होकर बाद में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) और वन संरक्षण अधिनियम (1980) जैसे महत्वपूर्ण कानून बनाए गए।
वैश्विक प्रभाव
चिपको आंदोलन ने “Tree Hugging Movement” जैसी वैश्विक पर्यावरणीय पहलों को प्रेरित किया। इसे संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक संस्थाओं द्वारा भी सराहा गया।
निष्कर्ष
चिपको आंदोलन सिर्फ पेड़ों की रक्षा का आंदोलन नहीं था, बल्कि यह महिलाओं की सामाजिक भागीदारी और पर्यावरण के प्रति जागरूकता का प्रतीक था। यह आंदोलन आज भी पर्यावरण संरक्षण के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण बना हुआ है।