उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य है जो हिमालयी क्षेत्र में स्थित है। इसकी सुंदरता जितनी आकर्षक है, भूगोल उतना ही अस्थिर और संवेदनशील भी है। यहाँ भूकंप, भूस्खलन और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याएँ लगातार बनी रहती हैं।
1. उत्तराखंड में भूगोलिक अस्थिरता के प्रमुख कारण
(क) भूकंप संभावित क्षेत्र
- उत्तराखंड सिस्मिक ज़ोन IV और V में आता है, जो इसे उच्च भूकंपीय खतरे वाला क्षेत्र बनाता है।
- 1991 (उत्तरकाशी), 1999 (चमोली) और 2017 (रुद्रप्रयाग) में बड़े भूकंप आ चुके हैं।
- हिमालय अभी भी भारतीय और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों के टकराने से बन रहा है, जिससे धरती के अंदर हलचल जारी रहती है।
(ख) भूस्खलन और चट्टानों का खिसकना
- तेज़ बारिश, वनों की कटाई और सड़क निर्माण के कारण पहाड़ कमजोर हो रहे हैं।
- चमोली, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी और टिहरी सबसे अधिक भूस्खलन प्रभावित जिले हैं।
- जोशीमठ संकट (2023) इस अस्थिरता का सबसे बड़ा उदाहरण था, जहाँ पूरा शहर धीरे-धीरे धंसने लगा।
(ग) ग्लेशियरों का पिघलना और बाढ़ का खतरा
- उत्तराखंड के प्रमुख ग्लेशियर जैसे गंगोत्री, मिलम, पिंडारी और नंदा देवी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।
- 2013 की केदारनाथ आपदा का मुख्य कारण चौराबाड़ी ग्लेशियर की झील का फटना था, जिससे अचानक बाढ़ आ गई।
- ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों में जलस्तर बढ़ रहा है, जिससे अचानक बाढ़ और गंगा जैसी नदियों की अविरलता खतरे में है।
2. पर्यावरण पर प्रभाव
(क) जैव विविधता को नुकसान
- उत्तराखंड के जंगलों में पाई जाने वाली दुर्लभ प्रजातियाँ जैसे मस्क डियर (कस्तूरी मृग), स्नो लेपर्ड (हिम तेंदुआ), मोनाल (राज्य पक्षी) विलुप्ति की कगार पर हैं।
- वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास नष्ट होने के कारण मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ रहा है।
(ख) कृषि और जल संसाधनों पर असर
- लगातार भूक्षरण के कारण खेती योग्य ज़मीन घट रही है।
- पहाड़ी क्षेत्रों में पानी के स्रोत सूख रहे हैं, जिससे गांवों में जल संकट गहराता जा रहा है।
(ग) मौसम के पैटर्न में बदलाव
- पहले की तुलना में बारिश का पैटर्न अनियमित हो गया है, जिससे अचानक बाढ़ और सूखा दोनों की घटनाएँ बढ़ी हैं।
- बर्फबारी की मात्रा घट रही है, जिससे पर्यटन और पारिस्थितिकी दोनों प्रभावित हो रहे हैं।
3. समाधान और भविष्य की रणनीति
(क) स्थायी विकास और निर्माण तकनीक
- पहाड़ी क्षेत्रों में स्लोप-स्टेबिलाइज़ेशन (ढलान स्थिरीकरण) तकनीक अपनाई जानी चाहिए।
- नए शहर बसाने से पहले भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए।
(ख) पर्यावरण संरक्षण की पहल
- अधिक से अधिक वृक्षारोपण और जल संरक्षण तकनीकों को बढ़ावा देना।
- जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए सस्टेनेबल टूरिज्म को बढ़ावा देना।
(ग) स्थानीय समुदायों की भागीदारी
- पारंपरिक ज्ञान जैसे चिपको आंदोलन जैसी पहलों को फिर से सक्रिय करना।
- गाँवों में वॉटर हार्वेस्टिंग और सोलर एनर्जी को अपनाने के लिए योजनाएँ बनानी चाहिए।
निष्कर्ष
उत्तराखंड की भूगोलिक अस्थिरता न सिर्फ यहाँ की प्राकृतिक संरचना बल्कि पर्यावरण और लोगों की आजीविका को भी प्रभावित कर रही है। सरकार को सतत विकास योजनाएँ बनानी होंगी, जो इस संवेदनशील क्षेत्र की पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर बनाई जाएँ। साथ ही, स्थानीय लोगों और वैज्ञानिकों को मिलकर काम करना होगा, ताकि उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता और पारिस्थितिकी संरक्षित रह सके।