हिमालय की गोद में बसा यह राज्य सैकड़ों औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों का घर है। सदियों से यहाँ की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियाँ इन औषधीय वनस्पतियों पर निर्भर रही हैं। परंतु बढ़ती जनसंख्या, अवैज्ञानिक दोहन, जलवायु परिवर्तन और जंगलों की कटाई के कारण इन पौधों का अस्तित्व संकट में है।
इस लेख में हम उत्तराखंड की पारंपरिक औषधीय वनस्पतियों, उनके उपयोग, भौगोलिक वितरण, संरक्षण की चुनौतियों और समाधान के उपायों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
1. पारंपरिक औषधीय वनस्पतियों का परिचय
उत्तराखंड की पर्वतीय जलवायु, मिट्टी की विविधता और ऊँचाई में अंतर होने के कारण यहाँ अनेक दुर्लभ और बहुमूल्य औषधीय पौधे पाए जाते हैं। इन पौधों का उपयोग न केवल आयुर्वेद में, बल्कि लोक चिकित्सा पद्धतियों में भी होता है।
प्रमुख औषधीय पौधे:
- अतीस (Aconitum heterophyllum):
- उपयोग: ज्वर, अतिसार, पेट दर्द
- खतरा: अत्यधिक दोहन के कारण अब संकटग्रस्त श्रेणी में है।
- कुटकी (Picrorhiza kurroa):
- उपयोग: यकृत रोग, पाचन समस्याएँ
- हिमालय के उच्च भागों में पाई जाती है।
- गिलोय (Tinospora cordifolia):
- उपयोग: प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करना, बुखार में
- बड़े पैमाने पर उपयोग के कारण अत्यधिक संग्रह हो रहा है।
- चिरायता (Swertia chirata):
- उपयोग: ज्वरनाशक, मधुमेह नियंत्रण
- पहाड़ी इलाकों में जंगली रूप से उगती है।
- रतनजोत (Valeriana jatamansi):
- उपयोग: अनिद्रा, तनाव, स्नायु विकार
- इसके तेल की अंतरराष्ट्रीय मांग है।
- बंकोली (Podophyllum hexandrum):
- उपयोग: कैंसर की दवा निर्माण में उपयोगी
- अति-दुर्लभ और विलुप्ति की कगार पर।
2. भौगोलिक वितरण
उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में औषधीय पौधों की अलग-अलग प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो क्षेत्र विशेष की ऊँचाई, जलवायु और वनस्पति पर निर्भर करती हैं।
क्षेत्र | प्रमुख औषधीय पौधे |
---|---|
चमोली | अतीस, कुटकी, बंकोली |
पिथौरागढ़ | रतनजोत, जड़ी-बूटी |
टिहरी | गिलोय, चिरायता |
उत्तरकाशी | कुटकी, चिरायता |
नैनीताल | गिलोय, हरड़, बेहड़ा |
इन पौधों की अधिकांश प्रजातियाँ 1800 मीटर से अधिक ऊँचाई पर पाई जाती हैं, जिससे इनका संग्रहण कठिन होता है।
3. पारंपरिक ज्ञान और लोक चिकित्सा
उत्तराखंड की ग्रामीण और आदिवासी जनसंख्या सदियों से इन औषधीय पौधों का पारंपरिक ज्ञान रखती है। बैद्य और जड़ी-बूटी चिकित्सक इन वनस्पतियों के उपयोग से रोगों का उपचार करते हैं।
पारंपरिक ज्ञान की विशेषताएँ:
- पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से संचरित
- स्थान विशेष के अनुसार वनस्पतियों का चयन
- प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग
परंतु आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के प्रभाव और नई पीढ़ी की अनभिज्ञता के कारण यह परंपरा अब लुप्त होती जा रही है।
4. संरक्षण की चुनौतियाँ
औषधीय पौधों का संरक्षण उत्तराखंड के सामने एक बड़ी चुनौती बन गया है। कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:
(1) अवैध दोहन और तस्करी:
औषधीय पौधों की बढ़ती मांग के कारण इनका अवैज्ञानिक और अवैध संग्रहण हो रहा है, जिससे जैव विविधता पर खतरा बढ़ गया है।
(2) जंगलों की कटाई और भूमि क्षरण:
वनों के अंधाधुंध दोहन और विकास कार्यों के कारण पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ रहा है। इससे औषधीय पौधों का प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहा है।
(3) जलवायु परिवर्तन:
बदलते मौसम चक्र, वर्षा में अनियमितता और तापमान वृद्धि के कारण कई औषधीय पौधों की वृद्धि प्रभावित हो रही है।
(4) पारंपरिक ज्ञान का ह्रास:
नई पीढ़ी का इस ज्ञान में घटता रुचि, और आधुनिकता की ओर बढ़ता झुकाव इस अमूल्य विरासत को समाप्ति की ओर ले जा रहा है।
(5) सरकारी नीति में समन्वय की कमी:
औषधीय पौधों के संरक्षण और उपयोग को लेकर स्पष्ट नीति और जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन की कमी है।
5. संरक्षण के प्रयास
हालाँकि चुनौतियाँ गंभीर हैं, लेकिन उत्तराखंड सरकार और कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने संरक्षण के दिशा में कई सकारात्मक कदम उठाए हैं।
(1) जैविक उद्यान और हर्बल गार्डन की स्थापना:
उत्तराखंड में कई हर्बल गार्डन जैसे पंतनगर, ऋषिकेश और गोपेश्वर में स्थापित किए गए हैं, जहाँ दुर्लभ औषधीय पौधों का संरक्षण और शोध किया जा रहा है।
(2) राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड (NMPB):
यह संस्थान औषधीय पौधों के संरक्षण, खेती और उपयोग को बढ़ावा देता है। उत्तराखंड में इसकी शाखाएँ सक्रिय हैं।
(3) वनीकरण और औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा:
स्थानीय किसानों को औषधीय पौधों की खेती के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे आजीविका और संरक्षण दोनों सुनिश्चित हो सकें।
(4) स्थानीय समुदाय की भागीदारी:
“वन पंचायत” और महिला स्वयं सहायता समूहों को औषधीय पौधों की देखरेख और व्यावसायिक उपयोग में सम्मिलित किया जा रहा है।
(5) शोध एवं शिक्षा:
कुमाऊँ विश्वविद्यालय, GBPUAT, और अन्य संस्थान इन पौधों पर शोध कर रहे हैं और पारंपरिक ज्ञान को लिपिबद्ध करने का कार्य कर रहे हैं।
6. समाधान और सुझाव
(1) संवेदनशील क्षेत्रों में पौधों की पुनर्स्थापना:
जहाँ से ये पौधे विलुप्त हो चुके हैं, वहाँ दोबारा इन्हें उगाने के लिए सामुदायिक नर्सरी और वन विभाग को मिलकर कार्य करना चाहिए।
(2) पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण:
स्थानीय बुजुर्गों से पारंपरिक औषधीय ज्ञान एकत्र कर उसे दस्तावेजीकृत किया जाना चाहिए।
(3) स्थायी और वैज्ञानिक संग्रहण विधियाँ:
पौधों को नष्ट किए बिना उनके अंगों का संग्रह किया जाए और एक सीमा के बाद पुनः संग्रह न हो।
(4) स्थानीय उत्पादों को बाज़ार से जोड़ना:
स्थानीय स्तर पर तैयार औषधीय उत्पादों को e-commerce प्लेटफार्म से जोड़ा जाए, जिससे ग्रामीणों को आय और पौधों को संरक्षण दोनों मिले।
(5) नीति निर्माण और कठोर क्रियान्वयन:
राज्य सरकार को एक स्पष्ट और प्रभावी औषधीय वनस्पति संरक्षण नीति बनानी चाहिए जिसमें वन विभाग, स्थानीय समुदाय, और वैज्ञानिक संस्थान साथ मिलकर काम करें।