उत्तराखंड जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध एक पर्वतीय राज्य है। यहाँ के घने वन, पर्वतीय घाटियाँ, और विविध पारिस्थितिकी तंत्र इसे न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बनाते हैं, बल्कि जंगली जीव-जंतुओं के लिए भी आदर्श निवास स्थान प्रदान करते हैं। परंतु, बीते कुछ दशकों में मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष की घटनाएँ बढ़ी हैं। यह संघर्ष अब केवल वन विभाग की चिंता नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक मुद्दा बन चुका है।
मानव-वन्यजीव संघर्ष का आशय
जब मनुष्य और जंगली जानवर एक-दूसरे के पर्यावरण में घुसपैठ करते हैं, और इसके परिणामस्वरूप जान-माल की हानि होती है, उसे मानव-वन्यजीव संघर्ष (Human-Wildlife Conflict) कहा जाता है। उत्तराखंड में यह संघर्ष मुख्यतः ग्रामीण और वनवर्ती क्षेत्रों में देखने को मिलता है।
मुख्य कारण
1. वनों की अंधाधुंध कटाई
वनों की कटाई से जानवरों का प्राकृतिक निवास स्थान सिकुड़ता जा रहा है, जिससे वे भोजन और पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर आते हैं।
2. जनसंख्या वृद्धि एवं अवैध निर्माण
तेजी से फैलते मानव निवास और कृषि विस्तार के कारण जंगलों की सीमाएँ लगातार घट रही हैं।
3. चारागाहों का अभाव
वन्यजीवों के लिए चारे की कमी होने से वे किसानों की फसल या पशुओं पर हमला करने लगते हैं।
4. पर्यटन और सड़क निर्माण
सड़कें, रिसॉर्ट्स और हाइड्रो प्रोजेक्ट्स के कारण जंगली जानवरों का आवास प्रभावित होता है और उनकी आवाजाही में बाधा आती है।
5. जलवायु परिवर्तन
जलवायु असंतुलन के कारण खाद्य चक्र और प्रवास पथ गड़बड़ा जाते हैं जिससे संघर्ष बढ़ता है।
प्रमुख संघर्ष-प्रवण क्षेत्र
उत्तराखंड में जिन क्षेत्रों में यह समस्या गंभीर है, उनमें प्रमुख हैं:
- कॉर्बेट नेशनल पार्क और इसके आसपास के क्षेत्र (रामनगर, कालाढूंगी)
- पौड़ी गढ़वाल और चंपावत जिलों में गुलदार (तेंदुआ) हमले
- टिहरी और उत्तरकाशी में भालुओं की उपस्थिति
- हरिद्वार व कोटद्वार जैसे मैदानी इलाके, जहाँ हाथियों के झुंड अक्सर खेतों में घुस जाते हैं
प्रभाव
1. जान-माल की हानि
गुलदार, हाथी, भालू जैसे जानवर मानवों पर जानलेवा हमले करते हैं। साथ ही, उनकी उपस्थिति से फसलें, पशुधन और घरों को भी भारी नुकसान होता है।
2. सामाजिक और मानसिक तनाव
लोगों में भय का वातावरण बन जाता है, जिससे उनका सामाजिक जीवन प्रभावित होता है। बच्चे स्कूल जाने से डरते हैं और महिलाएँ खेतों में काम करने से कतराती हैं।
3. आर्थिक नुकसान
खेती और पशुपालन उत्तराखंड में आजीविका का प्रमुख स्रोत है। जब इनपर वन्यजीवों का हमला होता है, तो किसानों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो जाती है।
4. वन्यजीवों की छवि खराब होना
स्थानीय लोग वन्यजीवों को “खतरनाक” मानने लगते हैं और कई बार वे उन्हें मारने की कोशिश करते हैं।
सरकारी प्रयास एवं नीतियाँ
1. मुआवजा नीति
उत्तराखंड सरकार फसल, पशु या मानव की मृत्यु पर मुआवजा देती है, लेकिन यह प्रक्रिया जटिल और समय लेने वाली है।
2. रेस्क्यू ऑपरेशन
वन विभाग द्वारा जानवरों को पकड़कर जंगल में छोड़ने के प्रयास किए जाते हैं, विशेषकर गुलदार और भालू के मामलों में।
3. इलेक्ट्रिक फेंसिंग और ट्रेंचिंग
कई क्षेत्रों में खेतों के चारों ओर बिजली से चालित तार लगाए गए हैं ताकि जानवर अंदर न आ सकें।
4. ईको-डिवेलपमेंट कार्यक्रम
स्थानीय समुदायों को वन्यजीवों के साथ सामंजस्य बैठाने हेतु प्रशिक्षित किया जाता है।
स्थानीय समुदाय की भूमिका
1. सहयोगात्मक वन प्रबंधन
“वन पंचायत” जैसे मॉडल के तहत स्थानीय लोग भी वन प्रबंधन में भागीदार बनते हैं।
2. जानकारी का आदान-प्रदान
गाँवों में वन्यजीवों की गतिविधियों की जानकारी साझा करने की प्रणाली से सतर्कता बढ़ती है।
3. संवेदनशीलता और जागरूकता
शिक्षा और प्रचार के माध्यम से लोग जानवरों की रक्षा में सहयोग कर सकते हैं।
वैकल्पिक समाधान एवं सुझाव
1. बफर ज़ोन का निर्माण
वन्यजीव और मानव बस्तियों के बीच बफर जोन बनाने से टकराव में कमी आ सकती है।
2. प्रौद्योगिकी का उपयोग
GPS कॉलर, ड्रोन और AI आधारित निगरानी से वन्यजीवों की गतिविधियों को ट्रैक किया जा सकता है।
3. जैविक अवरोध (Bio-barriers)
मिर्ची रस्सियाँ, मधुमक्खियों के छत्ते आदि जैसे प्राकृतिक उपाय जानवरों को दूर रखने में सहायक हो सकते हैं।
4. समावेशी नीति निर्माण
नीतियाँ केवल वन्यजीवों को केंद्र में रखकर नहीं, बल्कि स्थानीय समुदायों की सहभागिता के साथ बननी चाहिए।
5. पुनर्वास नीति
जो क्षेत्र बार-बार संघर्ष की चपेट में आते हैं, वहाँ सुरक्षित पुनर्वास की व्यवस्था की जानी चाहिए।
महत्वपूर्ण उदाहरण
- 2019 – चंपावत में गुलदार ने 7 लोगों पर हमला किया, जिसके बाद उसे “आदमखोर” घोषित किया गया।
- 2023 – हरिद्वार में हाथियों का झुंड खेतों में घुस आया, जिससे लाखों की फसल बर्बाद हुई।
- पिथौरागढ़ में मधुमक्खियों के छत्तों का उपयोग कर भालुओं को गाँव से दूर रखने का सफल प्रयोग किया गया।
निष्कर्ष
उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष अब केवल पर्यावरणीय नहीं बल्कि सामाजिक और विकासात्मक मुद्दा बन चुका है। यह संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता और मानव की बढ़ती आवश्यकताओं के बीच असंतुलन का परिणाम है। इसे केवल “वन्यजीवों की समस्या” मानना त्रुटिपूर्ण होगा। आवश्यक है कि इस दिशा में सामूहिक प्रयास किए जाएँ — जहाँ सरकार, वन विभाग, वैज्ञानिक संस्थान और सबसे अहम, स्थानीय समुदाय एक साथ मिलकर समाधान खोजें।
वन्यजीव हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न हिस्सा हैं और उनका संरक्षण मानवता के अस्तित्व के लिए भी अनिवार्य है। यदि हम प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखना चाहते हैं, तो मानव-वन्यजीव संघर्ष को नीतिगत, तकनीकी और सामाजिक रूप से सुलझाना ही होगा।