उत्तराखंड न केवल अपनी आध्यात्मिकता, प्राकृतिक सौंदर्य और सांस्कृतिक विविधता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसके लोकजीवन में रचे-बसे पारंपरिक लोकखेलों के लिए भी जाना जाता है। पहाड़ों में जन्मे ये खेल न केवल मनोरंजन के साधन थे, बल्कि सामूहिकता, साहस, शरीर की क्षमता और सामाजिक एकता का प्रतीक भी थे। आज जब आधुनिक खेल और तकनीकी युग ने गांवों तक अपनी पहुँच बना ली है, ऐसे में पारंपरिक लोकखेल संकट के दौर से गुजर रहे हैं। इस लेख में हम उत्तराखंड के पारंपरिक लोकखेलों, उनकी वर्तमान स्थिति, सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व और संरक्षण के उपायों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
1. उत्तराखंड के प्रमुख पारंपरिक लोकखेल
उत्तराखंड में विभिन्न क्षेत्रों में खेले जाने वाले कई पारंपरिक खेल हैं जो बचपन से ही ग्रामीण जीवन का हिस्सा रहे हैं। इनमें से कुछ प्रमुख लोकखेल निम्नलिखित हैं:
1.1 भंड्याली (Bhandyaali)
- यह खेल विशेषकर गढ़वाल क्षेत्र में प्रसिद्ध है।
- इसमें समूह बनाकर शक्ति और गति के साथ प्रतिस्पर्धा होती है।
- इसका आयोजन पर्वों या मेलों के दौरान होता है।
1.2 कबड्डी
- उत्तराखंड में यह बहुत लोकप्रिय है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
- यह शारीरिक संतुलन, साँस की क्षमता और रणनीति पर आधारित होता है।
1.3 गिल्ली-डंडा
- यह खेल उत्तराखंड के बच्चों में बहुत आम था, लेकिन अब कम होता जा रहा है।
- गिल्ली को डंडे से मारकर दूर फेंका जाता है और उसे पकड़ने या ढूँढने का खेल चलता है।
1.4 छुपन-छुपाई (Hide and Seek) – स्थानीय नामों से
- बच्चों द्वारा खेले जाने वाला सामाजिक और चतुराई आधारित खेल।
1.5 गेंद-बल्ला (स्थानीय क्रिकेट रूप)
- लकड़ी की गेंद और बल्ले से गाँव के बच्चों द्वारा खेला जाने वाला देसी क्रिकेट।
1.6 रम्माण खेल
- यह नाट्यात्मक खेल टिहरी जनपद के जौनसार-बावर क्षेत्र में लोकप्रिय है।
- इसमें नाटक, गीत, नृत्य और खेल का मिश्रण होता है।
2. इन खेलों का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व
2.1 सामाजिक एकता और सहभागिता
- लोकखेल गांव के सभी वर्गों को एक मंच पर लाते थे। जाति, धर्म, आर्थिक स्थिति से ऊपर उठकर एकता का वातावरण बनता था।
2.2 सांस्कृतिक परंपरा का संवाहक
- ये खेल केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं थे, बल्कि पारंपरिक गीत, पोशाक, भाषा और रीति-रिवाजों को भी जीवित रखते थे।
2.3 शारीरिक स्वास्थ्य और सहनशक्ति
- पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों में ये खेल शरीर को सक्रिय और फिट बनाए रखने का जरिया थे।
2.4 नैतिक और सामूहिक शिक्षा
- सहयोग, नेतृत्व, धैर्य, ईमानदारी जैसे गुण इन खेलों के माध्यम से बच्चों को सिखाए जाते थे।
3. वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ
3.1 आधुनिकता का प्रभाव
- मोबाइल, इंटरनेट, ऑनलाइन गेम्स और टीवी ने बच्चों का ध्यान पारंपरिक खेलों से हटाया है।
3.2 खेल स्थलों की कमी
- गांवों में अब खुले मैदान या सुरक्षित खेल क्षेत्र नहीं बचे हैं। शहरीकरण और भूमि का व्यावसायिक उपयोग इसका कारण है।
3.3 पारिवारिक और शैक्षणिक दबाव
- माता-पिता अब बच्चों को केवल पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं तक सीमित कर रहे हैं। खेलों को समय की बर्बादी समझा जाता है।
3.4 सरकारी उपेक्षा
- पारंपरिक लोकखेलों को बढ़ावा देने हेतु कोई ठोस नीति या कार्यक्रम नहीं है।
3.5 सांस्कृतिक विस्मरण
- नई पीढ़ी को अपनी पारंपरिक खेल संस्कृति के बारे में ज्ञान नहीं है।
4. संरक्षण और पुनर्जीवन के उपाय
4.1 विद्यालयी पाठ्यक्रम में समावेश
- उत्तराखंड के स्कूलों में लोकखेलों को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए। ‘खेल दिवस’ में इन्हें प्राथमिकता दी जाए।
4.2 ग्राम स्तर पर लोकखेल प्रतियोगिताएँ
- ग्राम पंचायतें, NGOs, और युवा संगठन गांवों में वार्षिक पारंपरिक खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित करें।
4.3 डिजिटल दस्तावेजीकरण और प्रचार
- यूट्यूब चैनल, वेबसाइट्स और सोशल मीडिया के माध्यम से इन खेलों के वीडियो, नियम और इतिहास को प्रचारित किया जाए।
4.4 पर्यटन के साथ जोड़ना
- उत्तराखंड में आने वाले पर्यटकों को इन खेलों से परिचित कराया जाए। होमस्टे और स्थानीय त्योहारों में इन्हें शामिल किया जाए।
4.5 सरकारी संरक्षण योजनाएँ
- राज्य सरकार को पारंपरिक खेलों के लिए विशेष अनुदान, ट्रेनिंग सेंटर और पुरस्कार योजनाएँ चलानी चाहिए।
5. भविष्य की संभावनाएँ
पारंपरिक लोकखेलों का भविष्य तभी सुरक्षित हो सकता है जब इन्हें समाज, सरकार और नई पीढ़ी मिलकर बचाने का प्रयास करें। यह सिर्फ एक सांस्कृतिक पहचान नहीं बल्कि उत्तराखंड की आत्मा का हिस्सा है। यदि सही समय पर कदम न उठाए गए, तो यह विरासत हमेशा के लिए खो सकती है।
निष्कर्ष
उत्तराखंड के पारंपरिक लोकखेल केवल मनोरंजन के साधन नहीं हैं, बल्कि वे एक जीवित संस्कृति, परंपरा और सामाजिक ताने-बाने के महत्वपूर्ण घटक हैं। इनकी रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है। आज जब दुनिया योग, आयुर्वेद, भारतीय संगीत आदि को अपना रही है, तब हमें अपने लोकखेलों को भी नवजीवन देना चाहिए। समय आ गया है कि हम ‘ग्लोबल’ के साथ ‘लोकल’ को भी अपनाएं और अपनी सांस्कृतिक जड़ों को संजोएँ।