1. पारंपरिक ज्योतिष की पृष्ठभूमि
उत्तराखंड की पारंपरिक ज्योतिष प्रणाली वैदिक परंपरा से प्रेरित है। यहाँ के स्थानीय ज्योतिषी या पंडित केवल पंचांग ही नहीं देखते, बल्कि उन्हें जीवन की घटनाओं की भविष्यवाणी, विवाह की अनुकूल तिथियाँ, यज्ञ-हवन, गृह प्रवेश, जन्मपत्री, मरणोत्तर कर्म आदि के लिए सलाहकार माना जाता है।
- कुंडली मिलान: विवाह के लिए कुंडली मिलाना आज भी आवश्यक परंपरा है।
- ग्रह दोषों की शांति: राहु, केतु, शनि आदि के दोषों की शांति हेतु विशेष पूजा कराई जाती है।
- दशा विचार: मनुष्य की वर्तमान दशा—अंतर्दशा, महादशा—के आधार पर समस्याओं का समाधान बताया जाता है।
- नामकरण संस्कार में ग्रह गणना: नवजात शिशु के नामकरण हेतु जन्म समय पर ग्रहों की स्थिति के अनुसार अक्षर चुना जाता है।
2. लोक विश्वासों की विविधता
उत्तराखंड के लोक विश्वास अत्यंत प्राचीन, गहरे और विविध हैं। इनमें प्राकृतिक शक्तियाँ, पूर्वजों की आत्माएँ, ग्राम देवता, भूत-प्रेत, देवताओं के अवतरण (प्राप्ति) आदि की मान्यता शामिल होती है।
(क) देवी-देवता और प्राप्ति पर विश्वास
उत्तराखंड में “देवता की प्राप्ति” एक आम लोक परंपरा है जिसमें कोई विशेष व्यक्ति (जिसे डंगरिया या भगत कहा जाता है) trance या समाधि की अवस्था में देवता के रूप में व्यवहार करता है और प्रश्नों के उत्तर देता है। यह प्रक्रिया विशेषकर जागर, धूप, या डंगर के समय होती है।
(ख) पित्र दोष और निवारण
पूर्वजों की आत्मा यदि संतुष्ट न हो तो उसे पित्र दोष माना जाता है। इससे घर में रोग, मृत्यु, विवाह रुकावट आदि मानी जाती हैं। इसके निवारण के लिए पिंडदान, तर्पण, नारायण बली जैसे कर्म किए जाते हैं।
(ग) भूत-प्रेत और ऊपरी शक्तियाँ
– कुछ क्षेत्रों में विशेष वृक्षों, स्थलों को प्रेत बाधित माना जाता है।
– झाड़-फूँक, नींबू-मिर्च, राख, लोहे की कील आदि लोक उपाय सामान्य रूप से उपयोग किए जाते हैं।
– ओझा या भूत भगाने वाला व्यक्ति इनका निवारण करता है।
3. त्योहारों और अनुष्ठानों में ज्योतिष और लोक विश्वास की भूमिका
उत्तराखंड के पर्व-त्योहारों में ज्योतिषीय गणना और लोक विश्वासों की मुख्य भूमिका होती है:
- घुघुतिया (मकर संक्रांति): सूर्य की दिशा परिवर्तन पर आधारित पर्व
- हरियाली देवी और जगर अनुष्ठान: ग्राम देवी की पूजा और प्राप्ति पर आधारित
- नंदा देवी राजजात यात्रा: इस यात्रा की तिथि और दिशा तय करने में परंपरागत ज्योतिषियों की सलाह ली जाती है
- उतराई-दाख (ग्रह प्रवेश या भूमि पूजा): शुभ समय तय करने के लिए पंचांग देखा जाता है
4. सामाजिक संरचना और लोक विश्वास
उत्तराखंड की जातीय संरचना में ब्राह्मण, राजपूत, अनुसूचित जातियाँ और जनजातियाँ — सभी वर्गों में लोक विश्वासों की गहरी पैठ है। विशेषकर जनजातीय क्षेत्रों जैसे जौनसार-बावर, भोटिया क्षेत्र, गढ़वाल के दूरस्थ गाँवों में इनका प्रभाव अत्यधिक है।
नारी और लोक विश्वास:
- महिलाओं को कुछ अनुष्ठानों में प्रवेश वर्जित होता है।
- मासिक धर्म के दौरान मंदिरों या अनुष्ठानों में भाग लेने की मनाही होती है।
बच्चों के पालन में विश्वास:
– नवजात को बुरी नजर से बचाने के लिए कालटीका, काजल और काले धागे बाँधे जाते हैं।
– बच्चे के पहले बाल उतारने की तिथि ग्रहों के अनुसार चुनी जाती है।
5. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आलोचना
वर्तमान समय में जब विज्ञान और तकनीक ने जीवन को आसान और स्पष्ट बनाया है, तब इन विश्वासों को कई बार अंधविश्वास करार दिया जाता है। हालांकि कुछ लोक विश्वास जैसे—
- मौसम पूर्वानुमान (पक्षियों की उड़ान, बादलों की दिशा)
- वनस्पति आधारित उपचार
– आदि को आज विज्ञान भी मान्यता दे रहा है।
परंतु, भूत-प्रेत, ग्रह बाधा, देवता प्राप्ति जैसे विश्वासों को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित करना कठिन है।
6. आधुनिकता का प्रभाव
- शहरीकरण और शिक्षा: शहरों में युवाओं में इन परंपराओं के प्रति विश्वास घटा है।
- डिजिटल पंचांग और एप्स: अब विवाह मुहूर्त जैसे निर्णय मोबाइल से लिए जा रहे हैं।
- धार्मिक चैनलों और बाबा संस्कृति का प्रभाव: पारंपरिक गांव के ज्योतिषी की भूमिका कम होती जा रही है।
फिर भी, ग्रामीण क्षेत्रों और पर्वतीय समाज में इन परंपराओं की जड़ें अभी भी मज़बूत हैं।
7. संरक्षण और संभावनाएँ
यदि हम पारंपरिक ज्योतिष और लोक विश्वास को अंधविश्वास कहकर पूरी तरह नकार दें, तो हम अपनी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा खो देंगे। इसलिए जरूरी है:
- इन परंपराओं का लोक-सांस्कृतिक अध्ययन और प्रलेखन किया जाए।
- विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में लोक-परंपरा आधारित पाठ्यक्रम बनें।
- स्थानीय भूतपूर्व ज्योतिषियों और भगतों की जीवनियाँ रिकॉर्ड की जाएँ।
निष्कर्ष
उत्तराखंड की पारंपरिक ज्योतिष प्रणाली और लोक विश्वास न केवल धार्मिकता का प्रतीक हैं, बल्कि समाज की मानसिकता, परंपरा और सांस्कृतिक निरंतरता के सशक्त आधार भी हैं। इन विश्वासों में भले ही आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर सब कुछ खरा न उतरता हो, फिर भी इनमें निहित जीवनदर्शन, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान को नकारा नहीं जा सकता।
यह विषय न केवल संस्कृति को जानने का माध्यम है, बल्कि यह दर्शाता है कि कैसे पहाड़ के लोग प्रकृति, देवताओं और पूर्वजों के साथ संतुलन बनाकर जीवन जीते आए हैं।