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उत्तराखंड के लोकगायकों और लोकगीतों का पॉप कल्चर में बदलता रूप…..

उत्तराखंड अपनी समृद्ध लोक संस्कृति के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां के लोकगीतों में पर्वतीय जीवन, ऋतु परिवर्तन, प्रेम, आध्यात्म और लोक आस्था की झलक मिलती है। लेकिन 21वीं सदी में इन पारंपरिक सुरों ने आधुनिकता की बांसुरी से तालमेल बिठाते हुए एक नया रूप ले लिया है: “पॉप कल्चर”। यह लेख उत्तराखंड के लोकगायकों, उनके संगीत, और कैसे वह आधुनिक मंचों—जैसे यूट्यूब, इंस्टाग्राम, रील्स और रैप—में ढलते जा रहे हैं, इसका विश्लेषण करता है।


1. उत्तराखंड का पारंपरिक लोक संगीत:

उत्तराखंड के दो प्रमुख सांस्कृतिक क्षेत्र—गढ़वाल और कुमाऊं—की अपनी अलग-अलग संगीत परंपराएं हैं।

प्रमुख लोकगीत शैलियाँ:

प्रमुख पारंपरिक लोकगायक:


2. डिजिटल युग और पॉप कल्चर का प्रभाव:

21वीं सदी में इंटरनेट और मोबाइल क्रांति ने पूरे भारत की तरह उत्तराखंड में भी लोकगीतों की प्रस्तुति और प्रसार को एक नया आयाम दिया है। अब लोकगायक मंच पर गाने तक सीमित नहीं हैं, वे यूट्यूब चैनल, सोशल मीडिया, और डिजिटल स्टूडियो में भी छा रहे हैं।

मुख्य परिवर्तन:

उदाहरण:


3. नए युग के लोकगायक और कलाकार:

1. किशन महिपाल: पारंपरिक और नए म्यूजिक का अनूठा मिश्रण। 2. मीना राणा: “गढ़ रत्न” कहलाई जाने वाली गायिका, जिनकी आवाज़ आज भी लोगों को लोक की गहराई में ले जाती है। 3. अजय सोलंकी, प्रिंस नेगी, और अमित सागर: ये युवा कलाकार लोकगीतों को नया आयाम दे रहे हैं। 4. पहाड़ी रैपर्स: जैसे लोकेंद्र नेगी और श्लोक नेगी जो गढ़वाली भाषा में रैप करते हैं।


4. लोकगीतों में बदलाव: भाषा, बीट और विषय

भाषा का सरलीकरण: पहले जहाँ गहरे गढ़वाली या कुमाऊंनी शब्द होते थे, अब शब्दों को सरल बनाया जा रहा है ताकि युवा भी जुड़ सकें।

बीट और टेम्पो का आधुनिकरण: अब गीतों में डीजे बीट्स, सिंथेसाइज़र, और ऑटो-ट्यून का उपयोग होता है।

विषय में विविधता:


5. पॉप कल्चर में लोकगीतों का सामाजिक प्रभाव:

सांस्कृतिक पुनर्जागरण: युवा पीढ़ी फिर से अपनी जड़ों की ओर लौट रही है। रोजगार के नए अवसर: म्यूजिक वीडियोज़, यूट्यूब चैनल्स, लाइव परफॉर्मेंस के माध्यम से कई लोगों को रोजगार मिल रहा है। आत्म-गौरव: अपनी संस्कृति को ग्लैमराइज करना युवाओं में गर्व का भाव पैदा कर रहा है।


6. चुनौतियाँ और चिंताएँ:

1. सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण: अत्यधिक मिक्सिंग से मूल भावना खोने का खतरा। 2. व्यावसायीकरण: भाव और श्रद्धा की जगह अब “वायरल कंटेंट” की सोच हावी हो रही है। 3. भाषाई प्रदूषण: लोकभाषा की शुद्धता कम हो रही है।


7. समाधान और सुझाव:

उत्तराखंड के लोकगायकों और लोकगीतों ने समय के साथ तालमेल बैठाकर आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाया है। यह संक्रमण केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और भाषाई दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। जहाँ एक ओर इन गीतों का ग्लैमराइजेशन युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर मूल लोक-संस्कृति को संरक्षित रखने की चुनौती भी सामने है। संतुलन बनाए रखना ही इस यात्रा की सबसे बड़ी आवश्यकता है।


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