उत्तराखंड की बोली-भाषाएँ और उनका संरक्षण…

उत्तराखंड न केवल प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध है, बल्कि भाषायी विविधता में भी यह राज्य अत्यंत समृद्ध है। यहाँ की भाषाएँ, बोली-विन्यास और लोकधुनें इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान का मजबूत स्तंभ हैं। लेकिन आज यह भाषाएँ आधुनिकता, पलायन, और शिक्षा के एकरूपीकरण की वजह से संकट में हैं।


2. उत्तराखंड की प्रमुख भाषाएँ और बोलियाँ

उत्तराखंड की भाषाओं को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

(क) गढ़वाली (Garhwali)

  • क्षेत्र: गढ़वाल मंडल (देहरादून, टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी)
  • उपबोलियाँ: श्रीनगरिया, टिहरी, चौंदकोटी, रवाँई, जौनसारी आदि

(ख) कुमाऊँनी (Kumaoni)

  • क्षेत्र: कुमाऊँ मंडल (नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत, अल्मोड़ा, ऊधमसिंह नगर)
  • उपबोलियाँ: अस्कोटी, सोरयाली, सीराली, दानपुरी, पाली पछाईं आदि

(ग) अन्य बोलियाँ

  • जौनसारी (जौनसार-बावर क्षेत्र)
  • थारू और बोक्सा (तराई क्षेत्र, विशेषकर ऊधमसिंह नगर और चंपावत)
  • रंग भाषा (पिथौरागढ़ के धारचूला क्षेत्र में)
  • भोटिया (सीमांत क्षेत्रों में, जैसे – मुनस्यारी, नीति-माना)
  • राजी (राजी जनजाति की अल्पसंख्यक बोली)

3. भाषाओं की वर्तमान स्थिति

भाषा/बोलीबोलने वालों की संख्या (2011 जनगणना अनुसार)खतरे की स्थिति (UNESCO)
गढ़वालीलगभग 23 लाखDefinitely endangered
कुमाऊँनीलगभग 21 लाखDefinitely endangered
जौनसारी1 लाख से कमVulnerable
भोटिया/रंग/राजीहजारों मेंSeverely endangered

चिंता की बात: हिंदी और अंग्रेज़ी की बढ़ती पकड़ ने स्थानीय भाषाओं को घर और समाज से बाहर लगभग गायब कर दिया है।


4. संरक्षण की चुनौतियाँ

  1. शिक्षा में स्थान नहीं — स्कूलों में मातृभाषा को हाशिये पर रखा जाता है
  2. पलायन — गाँवों से शहरों की ओर पलायन से पारंपरिक भाषा-संस्कृति टूट रही है
  3. युवाओं की अरुचि — युवा पीढ़ी गढ़वाली-कुमाऊँनी को पिछड़ापन मानती है
  4. डिजिटल कंटेंट की कमी — यूट्यूब/सोशल मीडिया पर स्थानीय भाषाओं में अच्छा कंटेंट नहीं
  5. आधिकारिक समर्थन का अभाव — अभी तक गढ़वाली/कुमाऊँनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है

5. संरक्षण के प्रयास

सरकारी प्रयास:

  • उत्तराखंड भाषा संस्थान की स्थापना (पुस्तक प्रकाशन, शब्दकोश निर्माण)
  • गढ़वाली-कुमाऊँनी में लोकगीतों के संग्रह
  • स्कूल स्तर पर “गृहभाषा” के रूप में पढ़ाने की पहल
  • 2022 में प्रस्ताव: गढ़वाली, कुमाऊँनी और जौनसारी को राजकीय भाषा बनाने की घोषणा

6. समाधान और सुझाव

  1. आठवीं अनुसूची में शामिल करना – गढ़वाली और कुमाऊँनी को संवैधानिक मान्यता
  2. शिक्षा प्रणाली में समावेश – प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा की पढ़ाई अनिवार्य
  3. डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर प्रोत्साहन – फिल्म, OTT, पॉडकास्ट, बच्चों के शो
  4. बोलने को बढ़ावा – घरों में बच्चों को अपनी मातृभाषा में संवाद करने को प्रेरित करें
  5. स्थानीय साहित्य को प्रोत्साहन – युवा लेखकों/कवियों को समर्थन

7. निष्कर्ष (Conclusion)

गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी जैसी बोलियाँ केवल संवाद के साधन नहीं हैं, ये हमारी पहचान, इतिहास, और संस्कृति की जीवंत प्रतीक हैं। यदि आज इनका संरक्षण नहीं हुआ, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल किताबों में अपने पूर्वजों की भाषा पढ़ेंगी। हमें यह समझना होगा कि किसी भी समाज की असली प्रगति उसकी मूल पहचान को बचाकर ही संभव है

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *