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श्रद्धा, प्रेम और बलिदान की अमर गाथा: नैनादेवी और चांदपुरगढ़ का वीर….

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपरा और लोकसंस्कृति में लोककथाएँ सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक मूल्यों, ऐतिहासिक चेतना और भावनात्मक विरासत की वाहक हैं। जहां ‘राजुला-मालूशाही’, ‘हरीश देवला’, और ‘गोरा-बादल’ जैसी गाथाएँ लोक मानस में गहराई तक समाई हुई हैं, वहीं कुछ कथाएँ ऐसी भी हैं जो सीमित क्षेत्रों में ही प्रचलित रहीं, परंतु उनकी भावनात्मक गूढ़ता और सांस्कृतिक मूल्य उतने ही समृद्ध हैं। ऐसी ही एक मार्मिक कथा है — नैनादेवी और चांदपुरगढ़ के वीर सेनापति वीरभद्र की, जो प्रेम, आस्था, सामाजिक विडंबना और बलिदान का प्रतीक बन चुकी है।


ऐतिहासिक और भौगोलिक पृष्ठभूमि

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित चांदपुरगढ़ कभी एक शक्तिशाली और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण गढ़ हुआ करता था। यह किला न केवल सुरक्षा का केंद्र था, बल्कि प्रशासन, व्यापार और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी मुख्य केंद्र था। इसी गढ़ में रहता था वीरभद्र — राज्य का एक अत्यंत पराक्रमी, ईमानदार और जनप्रिय सेनापति। दूसरी ओर, नैनीताल क्षेत्र की एक सुंदर, संस्कारी और देवी नंदा की अनन्य उपासक ब्राह्मण कन्या थी — नैनादेवी, जो अपने परिवार के साथ पर्वतीय मेलों में भाग लेने आई थी।


पहली भेंट और प्रेम का अंकुर

कहते हैं कि जब चांदपुर में एक धार्मिक उत्सव के दौरान मेले का आयोजन हुआ, तब पूरे क्षेत्र से लोग वहां पहुँचे। यही वह क्षण था जब नैनादेवी और वीरभद्र की पहली भेंट हुई। उनकी आँखों में न कोई छल था, न कोई आग्रह — बस सहजता और श्रद्धा। पहले ही संवाद में एक अजीब-सा आकर्षण पनपा, जो अगले कुछ दिनों में एक गहरे और निर्मल प्रेम में बदल गया। दोनों की रुचियाँ, आध्यात्मिक झुकाव और समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव उन्हें एक-दूसरे के और निकट लाता गया।


सामाजिक दीवारें और विरोध

हालांकि उनका प्रेम पवित्र और पारदर्शी था, परंतु समाज की परंपराएँ, जातिगत भेदभाव और सत्ता की सीमाएँ इस प्रेम के विरोध में खड़ी हो गईं। नैनादेवी एक उच्च कुल की ब्राह्मण कन्या थी जबकि वीरभद्र एक क्षत्रिय सेनापति। उस समय की सामाजिक व्यवस्था ऐसी अंतरजातीय संबंधों को सहजता से स्वीकार नहीं करती थी। सबसे बड़ा विरोध तब सामने आया जब इस प्रेम संबंध की जानकारी राजा तक पहुँची।

राजा को भय हुआ कि यदि एक सेनापति और ब्राह्मण कन्या का प्रेम सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया गया, तो यह शासन व्यवस्था, अनुशासन और सामाजिक परंपराओं के लिए खतरा बन सकता है। उसने यह निर्णय लिया कि वीरभद्र को राज्य की सीमा पर एक कठिन और खतरनाक मोर्चे पर भेजा जाए — जहाँ से जीवित लौट पाना लगभग असंभव था।


प्रेम, तपस्या और बलिदान

इधर नैनादेवी को वीरभद्र के युद्ध में जाने की खबर मिली, तो उसने देवी नंदा से मन्नत माँगी और 13 दिन का कठोर व्रत रखा। उसने स्वयं को पूर्णतः साधना और प्रार्थना में समर्पित कर दिया। वह नित्य देवी मंदिर जाती, दीप जलाती और वीरभद्र की सुरक्षा के लिए देवी से गुहार लगाती। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।

युद्ध के दौरान वीरभद्र ने वीरता और साहस का परिचय दिया, परंतु शत्रु की भारी संख्या और छल के कारण अंततः वह वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी मृत्यु की सूचना जब चांदपुर पहुँची, तो पूरे नगर में शोक की लहर फैल गई। लेकिन सबसे गहरा आघात नैनादेवी को लगा।

उसने यह स्वीकार कर लिया कि अब जीवन में न प्रेम है, न आश्रय, न उद्देश्य। अपनी 13 दिवसीय साधना पूरी करके, वह देवी के मंदिर में गई, और वहाँ समाधि लेकर प्राण त्याग दिए। कहते हैं, उसने अंतिम शब्दों में कहा — “जहाँ सच्चा प्रेम, श्रद्धा और त्याग होगा, वहाँ मैं शक्ति बनकर उपस्थित रहूँगी।”


लोकमान्यताएँ और धार्मिक स्वरूप

इस घटना के बाद, नैनादेवी को एक देवी का रूप मान लिया गया। लोग मानते हैं कि उसका प्रेम इतना पवित्र और बलिदान इतना गहन था कि वह अलौकिक शक्ति में बदल गया। नैनीताल की पहाड़ियों में स्थित नैनादेवी मंदिर को आज भी इसी कथा से जोड़ा जाता है। हर वर्ष नवरात्रों में वहां विशेष पूजा होती है, और कई महिलाएँ प्रेम, विवाह और संतान सुख के लिए वहाँ मन्नतें मांगती हैं।

पिथौरागढ़ और चांदपुर के कुछ गांवों में जब जागर (देवी गीत) गाए जाते हैं, तो नैनादेवी और वीरभद्र की प्रेम कथा को गीतों और कथाओं के रूप में दोहराया जाता है। लोकगायक इसे “देवी जागर प्रेम गाथा” के रूप में प्रस्तुत करते हैं।


सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व

इस कथा में प्रेम केवल रोमांटिक भाव नहीं, बल्कि एक सामाजिक विद्रोह, एक आध्यात्मिक साधना, और एक नैतिक बलिदान के रूप में सामने आता है। यह कहानी उत्तराखंड की नारी शक्ति को भी उजागर करती है, जहाँ एक स्त्री अपने प्रेम और विश्वास के लिए अंतिम साँस तक अडिग रहती है।

यह कथा आज के सामाजिक ढाँचे को भी चुनौती देती है, जहाँ प्रेम को जाति, धर्म और वर्ग में बाँट दिया गया है। नैनादेवी और वीरभद्र की कहानी उस आदर्श को स्थापित करती है, जहाँ प्रेम में कोई भेद नहीं, बस समर्पण होता है।


समकालीन प्रासंगिकता

आज के समाज में जहाँ रिश्ते सतही होते जा रहे हैं और प्रेम मात्र दिखावे तक सीमित होता जा रहा है, ऐसे में यह कथा युवाओं के लिए एक मूल्यपरक प्रेरणा बन सकती है। नैनादेवी जैसी स्त्रियाँ हमें यह सिखाती हैं कि प्रेम केवल पाने का नाम नहीं, बल्कि त्याग और श्रद्धा की पराकाष्ठा भी है।

सरकार और संस्कृति मंत्रालयों को चाहिए कि ऐसी लोककथाओं को विद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी सांस्कृतिक जड़ों और नारी चेतना से जुड़ सकें।


नैनादेवी और चांदपुरगढ़ के वीर की यह लोककथा केवल एक प्रेम कहानी नहीं, बल्कि उत्तराखंड की पर्वतीय संस्कृति में छिपी नारी शक्ति, आध्यात्मिक आस्था और सामाजिक संघर्ष की अद्भुत अभिव्यक्ति है। यह गाथा हमें यह सिखाती है कि प्रेम यदि शुद्ध हो, तो वह केवल संबंध नहीं, एक शक्ति, एक श्रद्धा और एक पूजा बन जाता है। पहाड़ों की हर घाटी में यह स्वर आज भी प्रतिध्वनित होता है — नैनादेवी जीवित हैं, जहाँ प्रेम और विश्वास जीवित है।

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