पारम्परिक लोकवाद्य (संगीत कला)

पारम्परिक लोकवाद्य (संगीत कला)

              पारम्परिक लोकवाद्य (संगीत कला)

उत्तराखण्ड में लगभग 36 प्रकार के लोकवाद्य प्रचलित हैं।
जिनको 5 श्रेणियों में विभाजित किया है।

  1. धातु/घन वाद्य – विणाई, कांसे की थाली, मंजीरा, घुंघरू, कसरी, झांडन, घंट, करताल, खंजरी, चिम्टा, थाली आदि।
  2. अवनद्ध/चर्म वाद्य – हुड़का, डौंर, हुड़क, ढोलकी, ढोल, दमाऊं, नगाड़ा, डफली, डमर घतिया, तबला आदि।
  3. सुषिर वाद्य – मुरूली, जौया मुरूली, भौंकर, भकौंरा, तुरही, रणसिंहा, नागफणी, शंख, उर्ध्वमुखी आदि।
  4. तंत/तार वाद्य – सारंगी, इकतारा, दोतारा, वीणा गोपीचंद का इकतारा आदि।
  5. अन्य वाद्य – हारमोनियम, आरगन आदि।

नोट – डमरू को संसार का प्रथम वाद्ययंत्र माना जाता है।

ढोल-दमाऊं

ढोल को सर्वप्रथम नागसंघ ने युद्ध में वीरों को प्रोत्साहित करने, युद्धकाल में वीरों को सूचित करने तथा वीररस का संचरण करने हेतु किया जाता था।
ढोल-दमाऊं साथ-साथ बजाये जाते हैं जो कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण व लोकप्रिय वाद्ययंत्र है। यह संपूर्ण प्रदेश में मांगलिक कार्यों, सामूहिक नृत्यों, धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा पर्वों, सभी लोकोत्सवों विवाह अवसरों में मनाये जाते हैं।
पूर्व में पर्वतीय भागों में ढोल-दमाऊं ही संचार के प्रमुख साधन थे।
ढोलसागर ग्रंथ के आधार पर ढोल-दमाऊं बजाया जाता है।
ढोल-दमाऊं राज्य का सबसे प्राचीन व प्रमुख वाद्य है।
ढोल को औजी जाति के लोग बजाते हैं जो दास कहलाते हैं।
ढोल तांबे व साल की लकड़ी से बना होता है, इसकी बांई पुड़ी पर बकरे की तथा दांई पुड़ी पर भैंस/बारहसिंघा की खाल चढी होती है।
दमाऊं तांबे तथा साल की लकड़ी का बना होता है। 1 फुट व्यास तथा 8 इंच गहरे कटोरे के समान होता है। इसके मुख पर बकरी/भैंस के मोटी चमड़ी की पुड़ी मढ़ी जाती है।
दमाऊं/दमोया की पुड़ी को खींचने हेतु 32 शरों (कुंडली रंध्रों) के चमड़ों के तांतों की जाली बुनी जाती है।
ढोल सागर के रचनाकार – गुरू खेगदास/खेरीदास/गुरू कश्मीरी है।
ढोलसागर को गुरू गोरखनाथ सम्प्रदाय की देन माना जाता है।
ढोलसागर टाल संबंधी ग्रंथ है।
ढोलसागर की भाषा ब्रजभाषा है, जबकि कुछ शब्द कुमाऊंनी व गढ़वाली में है।
मोहनलाल बाबुलकर की ढोलसागर पर लिखित पुस्तक – गढ़वाल के लोकधर्मी है।
ढोलसागर की संगीत की लिपि केशव अनुरागी ने लिखी।
ढोलसागर के एकमात्र ज्ञाता उत्तम दास हैं।

डौंर-थाली

डमरू/डौंर कुमाऊं एवं गढ़वाल का प्रमुख वाद्ययंत्र है।
हाथ से या लकुड़ से थाली को डौंर से साम्य बनाकर बजाया जाता है।
डौंर प्रायः सांदण की ठोस लकड़ी को खोखला करके बनाया जाता है, व इसके दोनों ओर बकरे की खाल चढ़ी होती है।
यह एक प्रकार का शिव वाद्य यंत्र है।
डौंर से गंभीर नाद निकलता है। जो रौद्र एवं लोमहर्षक होता है।
डौंर को दोनों घुटनों के बीच रखकर बजाया जाता है।
डौंर थाली का वादन प्रायः ब्राह्मण पुरोहित करते हैं।

ढोलकी/ढोलक

मुख्यतः बद्दी जाति के लोगों द्वारा बजायी जाती है।
बड़े-बड़े मेलों उत्सवों तथा त्योहारों के अवसर पर बद्दी बजाकर गाते हैं।
ढोलकी साल की लकड़ी से तथा इसकी पुड़िया बकरी/काकड़ की खाल से बनायी जाती है व लोहे पीतल के कुंडलों के माध्यम से स्वर दिया जाता है।

हुड़की/हुडक

हल्की व बजाने में सरल।
लम्बाई – 1 फुट 3 इंच।
इसके दोनों पुड़ी बकरे की खाल से बनाया जाता है।
युद्ध प्रेरक प्रसंग जागर व कृषि कार्यों में बजाया जाता है।
हुड़क 2 प्रकार के होते हैं। बडे हुड़क व छोटे हुड़क।
छोटे हुड़क को साइत्या कहते हैं।
कुमाऊं में कत्यूरी शासनकाल में छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में हुडका गायक द्वारा हुड़की बजाने का उल्लेख मिलता है।
हुड़की को केवल दांये हाथ से बजाया जाता है, बाएं हाथ से हुडके की कमर पकड़ी जाती है।

तुरी/तुरही और रणसिंहा

युद्ध के वाद्य यंत्र है।
आकार में लंबे पीतल, तांबे से मिलकर बनाए जाते हैं।
युद्ध के अवसरों पर इन वाद्ययंत्रों को बजाने से सूचना एवं सावधान रहने का संदेश दिया जात था।
मुख सी ओर शंकरी आकृति होती है व फूंक मारकर तीव्र ध्वनि निकलती है।

मोछंग

लोहे की पतली-पतली पट्टी से मिलकर निर्मित छोटा सा वाद्ययंत्र , इसे होंठों पर टिकार एक उंगली से बजाया जाता है।
घने वनों में पशुचारकों द्वारा प्रायः इस यंत्र का प्रयोग किया जाता है तथा नृत्य भी किया जाता है।

झांझ/झंझरी

कांसे की 2 प्लेटों से मिलकर ढोल-दमाऊं के साथ बजाया जाता है।

अलगोजा

यह 2 बांसुरियों के युग्म को एक साथ मुंह में लेकर बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है।
खुदेड़ अथवा करूणा प्रधान गीतों को अलगोजे के स्वरों में गाया जाता है।
यह बांस या मोटे रिंगाल की बनी होती है।
इसका प्रयोग सर्वाधिक पशुचारकों द्वारा किया जाता है।

सांरगी

यह बद्दी या मिरासियों का प्रिय वाद्य यंत्र है।
इस घुमंतु जाति के लोग बादीण को नृत्य कराते समय सारंगी में कई राग-रागनियों के स्वर पिरो देते हैं।
यह तार वाद्य यंत्र है।

शंख

व देव पूजन करते समय शंख ध्वनि की जाती है।
व शंख को भगवान विष्णु द्वारा रचित माना जाता है।

इकतारा

व तानपुरे के समान
व इसमें केवल एक तार होता है।

मशकबीन/मशकबाजा

व यह एक यूरोपीय (स्कॉटलैण्ड) वाद्य यंत्र है, जिसे पहले केवल सेना के बैंड में बजाया जाता था।
व यह कपड़े/चमड़े का थैलीनुमा होता है, जिसमें 5 बांसुरी जैसे यंत्र तथा एक हवा फूंकने के लिए नली लगी होती है। चमड़े की बनी मशक में हवा भरकर बीन पर उंगलियों के संचालन से अत्यंत मधुर स्वर दिए जाते हैं।
व विवाह उत्सवों, सैनिक परेड़ के अवसर पर बजाया जाता है।

नगाड़ा

व यह मूलतः युद्धवाद्य है, जिसे मंदिरों में धूयॉल नृत्य के अवसर पर बजाया जाता है।
व यह चर्म वाद्य यंत्र है।
व गढ़वाल क्षेत्र में आजकल सरों नृत्य के अवसर पर भी बजाया जाता है।

डफली

व यह थाली के आकार का वाद्ययंत्र है, जिस पर एक ओर पुड़ी/खाल चढी होती है। इसके फ्रेम पर घुंघरू भी लगाये जाते हैं।
व ढोलक, हुडकी, डौर की सभी तालें इस पर प्रस्तुत की जा सकती है।

बिणाई

व लोहे से बना एक छोटा सा धातु वाद्ययंत्र है, जिसको उसके दोनों सिरों को दांतों के बीच दबाकर बजाया जाता है।

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