उत्तराखंड वीरों की भूमि है। प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र के लोगों की सेना में जाने की परम्परा रही है। इस क्षेत्र के वीरों से मुहम्मद गोरी, तैमूर, शाहजहां, औरंगजेब आदि बहादुर राजाओं को की मात खानी पड़ी थी। आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैश अंग्रेज और इन्हीं के समान वीर गोरखें ही केवल इन्हें पराजित कर पाये थें।
राज्य में थल सेना के दो रेजीमेंट मुख्यालय तथा कई छावनियां हैं -
कुमाऊं रेजीमेंट
कुमाऊं क्षेत्र के लोगों से बनी कुमाऊं रेजीमेंट को कुमाऊं रेजीमेंट नाम 27 अक्टूबर 1945 के मिला और मई 1948 में इसका मुख्यालय आगरा की जगह रानीखेत (अल्मोड़ा) स्थानान्तरित किया गया। लेकिन देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न नामों से यहां के सैनिकों को लेकर रेजीमेंटों का गठन बहुत पहले से किया जाता रहा है।
1788 में सर्वप्रथम दक्षिण भारत में बरार के नवाब सलावत खां ने एल्लिचपुर ब्रिगेड नाम से एक ब्रिगेड गठित किया था। 35 वर्ष बाद वहां दूसरा ब्रिगेड गठित किया गया था। ये दोनों वर्तमान में बटालियन 4 कुमाऊं तथा बटालियन 5 कुमाऊं कहलाते हैं।
1797 में हैदराबाद के निजाम ने भी एक ब्रिगेड गठित किया था। जिसे आज बटालियन 2 कुमाऊं कहा जाता है।
1917 में अंग्रजों (कर्नल लांगर) ने प्रथम कुमाऊं राइफल्स की स्थापना की थी, जिसे अब बटालियन 3 कुमाऊं के नाम से जाना जाता है।
ग्वालियर के सिन्धिया रियासत में भी 4 ग्वालियर इफेन्ट्री के नाम से एक बटालियन गठित की गई थी, जिसे अब 5 मैकेनाइज्ड इन्फेन्ट्री कहा जाता है।
कुमाऊं रेजीमेंट ने भारतीय सेना को तीन सेनाध्यक्ष - जनरल एस.एम. श्रीनागेश (1955-57), जनरल के. एस. थिमैय्या (1957-61) और जनरल टी. एन. रैना (1975-78) प्रदान किए हैं। स्वतंत्रता से पूर्व इस रेजीमेंट को 18 युद्ध सम्मान मिल चुके थे।
भारत विभाजन के दौरान जम्मू-कश्मीर के मोर्चे पर कबाइलियों को पीछे धकेलने और हवाई अड्डे की रक्षा करने में 4 कुमाऊं बटालियन ने अद्वितीय वीरता दिखाई और इस मोर्चे पर मेजर सोमनाथ शर्मा के अद्भुत पराक्रम के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। ये पहले भारतीय सैनिक थे, जिन्हें वीरता के लिए यह सर्वोच्च सम्मान मिला था। इस मोर्चे पर रेजीमेंट को सात चक्र और 36 वीर चक्र प्राप्त हुए थे।
1962 में भारत-चीन युद्ध में रजांगला (लद्दाख) में मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में रेजीमेंट के सैनिकों ने चीनियों के खिलाफ जबर्दस्त मोर्चेबंदी की। असाधारण वीरता के लिए मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। सैनिकों को आठ वीर चक्र मरणोपरांत मिले और 6 सेना मेडल प्राप्त हुए।
कारगिल युद्ध में भी इस रेजीमेंट की पहली बटालियन महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
इस रेजीमेंट के 13वीं व 15वीं बटालियन को भारतीय सेना में वीरों में वीर कहा जाता है।
पहली बार सियाचीन में 19 कुमाऊं उतरी थी।
स्वतंत्रता के बाद अब तक इसे 2 परमवीर चक्र, 7 कीर्ति चक्र, तीन अशोक चक्र, 11 महावरी चक्र, 28 शौर्य चक्र तथा 150 से अधिक सेना मेडल मिल चुके हैं। कुमाऊं रेजीमेंट वह प्रथम रेजीमेंट है, जिसे 8 अपै्रल, 1961 को राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कलर प्रदान किया गया था।
हिमालय की त्रिशूल, कामेट नंदादेवी चोटियां पर चढ़ने का गौरव कुमाऊं रेजीमेंट के लेफ्टिनेट कर्नल नरेन्द्र कुमार ने प्राप्त किया था। इन्हें पदम्श्री से सम्मानित किया गया।
फरवरी 1988 में इस रेजीमेंट पर डाक टिकट जारी किया गया।
गढ़वाल रेजीमेंट
1815 में अंग्रेजी सेना और गोरखों के युद्ध में यद्यपि गोरखें परजित हो गये थे, लेकिन उनकी वीरता से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती करने का निर्णय लिया और गोरखा रेजीमेंट के नाम से एक अलग रेजीमेंट का गठन किया। इस रेजीमेंट में बड़ी संख्या में गढ़वाली सैनिक भी थे।
गोरखा रेजीमेंट के दूसरी बटालियन से 5 मई 1887 को अल्मोड़ा में गढ़वाली बटालियन का गठन कर तीसरी (कुमाऊं) रेजीमेंट नाम दिया गया और नवम्बर 1887 में कालौडांडा पहाड़ी (वर्तमान लैन्सडौंन) में छावनी बनाने का कार्य सौंपा गया।
1891 में 39वीं (गढ़वाली) रेजीमेंट आफ बंगाल इन्फेंट्री का गठन कर बर्मा में चीनियों के खिलाफ युद्ध के लिए भेजा गया। 1892 में इसे राइफल्स खिताब मिला और इसका नाम प्रथम बटालियन 39 गढ़वाल राइफल्स हो गया। 1901 में सेकण्ड बटालियन 39 गढ़वाल राइफल्स का गठन हुआ।
1921 में इसे रायल खिताब मिला व इसका नाम बदलकर 39वीं रायल गढ़वाल राइफल्स कर दिया गया। 1922 में सैन्य पूनर्गठन के बाद इसका नाम 18वीं रायल गढ़वाल राइफल्स हुआ व 1945 में इसे रायल गढ़वाल राइफल्स कहा जाने लगा। स्वाधीनता के उपरांत इसका नाम गढ़वाल राइफल्स कर दिया गया। इस समय इसकी कुल 19 बटालियनें हैं।
सन् 1914-18 में मध्य पूर्व एशिया में प्रथम विश्व युद्ध में अपूर्व वीरता के लिए पहली बार गढ़वाली राइफल्स के नायक दरबान सिंह नेगी को उस समय के सबसे बड़े पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया था। प्रथम विश्व युद्ध में इस पुरस्कार को पाने वाले वे दूसरे भारतीय सैनिक थे। इसके दूसरे वर्ष इसी रेजीमेंट के दूसरी बटालियन के राइफल मैन गबरसिंह नेगी को मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किया गया।
सन् 1909-10 में इस रेजीमेंट के लेफ्टिनेंट पी. टी. अर्थटन तथा राइफलमैन ज्ञान सिंह फर्स्वाण ने लैंसडोन से मास्को तक 4000 की यात्रा पैदल पूरी की। इस उपलब्धि पर सरकार ने इन्हें मैक ग्रेगर अलंकरण से विभूषित किया था।
23 अपै्रल 1930 को पेशावर में घटित काण्ड (पेशावर कांड) जिसके नायक वीरचंद्रसिंह गढ़वाली थे, का संबंध इसी रेजीमेंट से है।
इस बटालियन को (15 अगस्त 1947) कलकत्ता में फोर्ट विलियम पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का भी गौरव प्राप्त है।
अब तक इस रेजीमेंट को लगभग 459 वीरता पदक प्राप्त हो चुकें हैं। 1971 में भारत-पाक युद्ध में इस बटालियन के कैप्टन सी.एन.सिंह को महावीर चक्र प्रदान किया गया था। सन 2000 में कारगिल युद्ध के दौरान सबसे अधिक सैनिक शहीद हुए थे।
इस रेजीमेंट का युद्धघोष जय बदरी विशाल है।
इस रेजीमेंट के हवलदार जगत सिंह व कुंवर सिंह ने वर्ष 2003 में संयुक्त इंडो नेपाल पर्वतारोहण अभियान के तहत एवरेस्ट शिखर पर भारत का झंडा फहराया रेजीमेंट के पर्वतारोहण के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ा। 2007 में रेजीमेंट को इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार मिला।
प्रमुख सैन्यकर्मी
माधों सिंह भण्डारी - ये 17वीं सदी के गढ़वाल के राजा महिपति शाह के प्रमुख सेनापति रहे। उनकी बहादुरी, त्याग एवं उदारता के किस्से आज भी गढ़वाल में प्रसिद्ध है। इतिहास में वे गर्वभंजक के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने कई युद्धों में विजय पायी, जिसमें 1635 में तिब्बत की सेना से हुआ युद्ध प्रमुख है। टिहरी गढ़वाल जनपद के मलेथा गांव में एक पहाड़ी के अंदर से एक लम्बी गूल (नहर) बनाकर उन्होंने इस क्षेत्र की भूमि को उपजाऊ एवं लाभदायक बनाया।
वीरचंद्र सिंह गढ़वाली - इनका जन्म 24 दिसम्बर, 1891 को पौड़ी गढ़वाल के रौणसेरा गांव में हुआ था। ये ब्रिटिश सेना के गढ़वाल राइफल्स में थे। 23 अपै्रल 1930 को पेशावर में खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमान्त गांधी) के नेतृत्व में प्रदर्शन कर रहे सत्याग्रहियों पर इनके नेतृत्व में गढ़वाल राइफल्स के सिपाहियों ने गोली चलाने से इन्कार कर दिया। इस अवज्ञा के कारण इनके सहित गढ़वाल राइफल्स के सिपाहियों को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया। बागियों की तरफ से मुकदमा बैरिस्टर मुकुंदीलाल ने लड़ा और सभी की आजीवन कारावास हो गई। विभिन्न जेलों में 11 वर्ष 3 माह 18 दिन रहने के बाद सन् 1941 में रिहा हुए। 1 अक्टूबर 1979 को राम मनोहर लोहिया (दिल्ली) अस्पताल में इनकी मृत्यु हो गई।
दरबान सिंह नेगी - प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान ये प्रथम गढ़वाल राइफल्स के नायक थे। इनकी वीरता पर इन्हें 1914 में विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध में इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले वे दूसरे भारतीय सैनिक थे।
गबरसिंह नेगी - प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही 1915 में दूसरी गढ़वाल राइफल्स बटालियन के राइफलमैन गबरसिंह को उनकी वीरता के कारण मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किया गया था। इनका जन्म मज्यूड, चंबा (टिहरी) में 21 अपै्रल 1895 को हुआ था। 10 मार्च 1915 को लड़ते हए वीरगति को प्राप्त हुए थे।
मेजर सोमनाथ शर्मा - 4 कुमाऊं रेजीमेंट के सोमनाथ शर्मा को श्रीनगर शहर व हवाई अड्डा बचाने हेतु 1947 में मरणोपरांत परमवीर चक्र सम्मान से सम्मानित किया गया था। यह भारत का सर्वोच्च रक्षा सम्मान है।
शूरवीर सिंह पंवार - कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार का जन्म टिहरी गढ़वाल के पंवार राजवंश में हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1943 में इमरजेंसी कमीशन में इनको भारतीय सेना में कैप्टन का पद मिला। ये गढ़वाली, हिन्दी व संस्कृत साहित्य के विद्वान लेखक, इतिहासकार व योग्य प्रशासक थे। इनकी प्रमुख रचनायें - फतेप्रकाश, अलंकार प्रकाश, गढ़वाली के प्रमुख अभिलेख एवं दस्तावेज आदि हैं।
मेजर शैतान सिंह - 1962 में भारत-चीन युद्ध में लद्दाख में कुमाउं रेजीमेंट के इनके नेतृत्व में सैनिकों ने जबरदस्त मोर्चाबंदी की थी। असाधारण वीरता के लिए इन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र प्रदान किया गया था।
विपिन चंद्र जोशी - अल्मोड़ा मूल के निवासी श्री जोशी 1993-94 तक भारतीय थल सेना के अध्यक्ष रहे।
एडमिरल देवेन्द्र जोशी - अल्मोड़ा मूल के एडमिरल देवेन्द्र जोशी 31 अगस्त 2012 से 26 फरवरी 2014 तक भारतीय नौसेनाध्यक्ष रहे।
मोहन चंद शर्मा मासीवाल - दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा के पुलिस निरिक्षक और अल्मोड़ा निवासी श्री मासीवाल 19 सितम्बर 2008 को दिल्ली में जामिया नगर के बटला हाउस में आंतकवादियों के खिलाफ अभियान में शहीद हो गये। बहादुरी के लिए उन्हें 1 बार राष्ट्रपति पदक तथा 6 बार पुलिस पदक से सम्मानित किया गया था। उन्होंने कुल 55 मुठभेडों में 40 आतंकियों को मारा था। मरणोपरांत उन्हें अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।
गजेन्द्र सिंह बिष्ट - 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई स्थित नारीमन हाउस पर आंतकी हमले में जान की परवाह किए बिना श्री बिष्ट ने बंधकों को रिहा कराने में प्रमुख भूमिका निभाई। मरणोंपरान्त उन्हें अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।
सैन्य छावनियां
सैन्य छावनी से तात्पर्य उस क्षेत्र से हैं जहां सेना रहती है। ऐसे क्षेत्रों का प्रशासन छावनी परिषद द्वारा किया जाता है। राज्य में कुल 9 छावनी परिषदें हैं, जिनमें से प्रमुख इस प्रकार है -
अल्मोड़ा छावनी - अपै्रल 1815 में कर्नल गार्डनर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज (रोहिला फौज) ने गोरखों से अल्मोड़ा किला (लालमंडी) जीत लिया और उसे नया नाम फोर्ट मौयरा दिया। बाद में इसे छावनी का रूप दे दिया गया। आगे चलकर अप्रैल 1918 में उन गोरखा सैनिकों, जो नेपाल वापस नही गये, स्थानीय गोरखाओं तथा अन्य लोगों को मिलाकर यहां तृतीय गोरखा रेजीमेंट की स्थापना की गई।
रानीखेत छावनी - अल्मोड़ा जिले में स्थित रानीखेत को अंग्रेजों ने 1869 में आरामगाह के लिए खरीदा था लेकिन 1871 में यहां छावनी परिषद की स्थापना कर दी गई। इस नगर का अधिकांश भाग छावनी परिषद के अंतर्गत है। यह छावनी अलग-अलग समयों में अलग-अलग पल्टनों का आवास रहा है। 1948 में कुमाउं रेजीमेंट को आगरा से रानीखेत लाया गया, तब से यह स्थल कुमाऊं रेजीमेंट का मुख्यालय है।
देहरादून छावनी - 30 नवम्बर 1814 को अंग्रेज जनरल गिलस्पी के नेतृत्व में 15 हजार सैनिकों द्वारा गोरखों को खलंगा किले (नालापानी) में हराने के साथ ही देहरादून छावनी में तब्दील हो चुका था। 1815 में गोरखा सैनिक टुकडियों को तोड़कर सिरमौर बटालियन बनाई गई। ध्यातव्य है कि पहले यह सिरमौर का केन्द्र नाहन में था, जिसे बाद में देहरादून स्थानांतरित कर दिया गया। आज यहां एक सब एरिया तथा सैनिक अस्पताल व कैन्टोनमेंट बोर्ड है। इस क्षेत्र को उत्तरांचल की स्थापना के बाद उत्तरांचल सब एरिया के नाम से जाना जाता है।
चकराता छावनी - देहरादून के जौनसार बाबर क्षेत्र के चकराता एवं कैलना पहाडियों पर स्थित चकराता छावनी 1866 में बनना शुरू हुआ और 1869 से यहां सैनिक रहने लगे थे। लेकिन कैन्टोमेंट मजिस्ट्रेट का कार्यकाल अपै्रल 1873 में स्थापित हुआ था। आज यह एक महत्पवपूर्ण छावनी है।
लण्डौर छावनी - मंसूरी स्थित इस छावनी की स्थापना 1836 में वोलेन्टियर कोर की स्थापना के साथ हुई। यहां सेना का मैनेजमेंट इन्स्टीटयूट भी है।
लैंसडौन छावनी - 5 मई 1887 को स्थापित प्रथम गढ़वाल राइफल्स के कर्नल मैन्वेरिंग के नेतृत्व में 4 नवम्बर 1887 से इस छावनी को बसाया गया। पौड़ी जिले में स्थित इस स्थान को पहले कालोंडांडा के नाम से जाना जाता था। यह नगर पूर्ण रूप से छावनी परिषद के अंतर्गत है। यहां के आफीसर्स मेस में स्थित म्यूजियम एशिया के सर्वश्रेष्ठ म्यूजियमों में से एक है। इसके अतिरिक्त दरबान सिंह संग्रहालय, रेजिमेंटल दुर्गा मंदिर, कालेश्वर महादेव मंदिर तथा सेंट मेरी चर्च यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थल है। यहां के टिप-इन-टाप नामक स्थान से हिमालय पर्वत की अधिकतम श्रृंखलाएं दिखाई देती है।
गढ़वाल राइफल्स की कोटद्वार (कौडिया कैम्प) में भी कुछ अवस्थापना सुविधायें है। दुगड्डा में इसका एक कमीसरेट ग्राउंड है।
रूड़की छावनी - 1853 में स्थापित इस छावनी की स्थापना 1841 के आस-पास की गई थी। वर्तमान में यहां एक पल्टन और सैनिक आरामगाह है।
नैनीताल छावनी - नैनीताल में छावनी की स्थापना 1841 के आस-पास की गई थी। वर्तमान में यहां एक पल्टन और सैनिक आरामगाह है।
राष्ट्रीय इंडियन मिलिटरी कॉलेज
देहरादून में स्थित इस कालेज की स्थापना 1 मार्च, 1992 को डयूक ऑफ विंडसर (प्रिंस ऑफ वेल्स) द्वारा की गई थी। यह कालेज अब तक 6 रक्षा प्रमुख, 3 थल सेना अध्यक्ष और 3 वायु सेना अध्यक्ष दे चुका है। 3 वायु सेना मुखिया में से 2 पाकिस्तान के रहे हैं।
भारतीय सैन्य अकादमी
देहरादून में स्थित इस अकादमी की स्थापना 1 अक्टूबर 1932 को फील्ड मार्शल सर फिलिप चेटवुडबर्ट द्वारा की गई थी। 1934 के इसके पहले बैच में स्वतंत्र भारत के फील्ड मार्शल एस.एच.एफ. मानेकशाह भी थे। यह अकादमी अब तक अनेक पदक प्राप्त कर चुकी है।
अकादमी के पासिंग आउट परेड का अब तक तीन प्रधानमंत्री (1948 एवं 53 में नेहरू, 1982 में इंदिर, व 10 दिस. 2007 को मनमोहन सिंह) निरिक्षण कर चुके हैं।
खेल खिलाड़ी
राज्य गठन के पूर्व से ही प्रतिभाशाली खिलाडियां की दृष्टि से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध रहा है। यहां की मिट्टी ने राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक खिलाडियों को जन्म दिया है। अतः राज्य गठन के बाद सरकार खेल प्रतिभाओं को निखारने तथा अच्छे से अच्छे प्रदर्शन के लिए अनेक कदम उठा रही है।
2001 में देहरादून में खेल अकादमी की स्थापना की गई।
2001 में ही 6 से 10 जून तक देहरादून, रूड़की तथा हरिद्वार में प्रदेश का पहला खेल महोत्सव चला, जिसे स्वस्थ खेल, स्वस्थ उत्तरांचल का नाम दिया गया था।
हल्द्वानी (नैनीताल) में अंतर्राष्ट्रीय सुविधाओं से युक्त एक स्टेडियम व नई टिहरी में एक राज्यस्तरीय स्टेडियम का निर्माण किया जा रहा है।
बागेश्वर में इण्डोर स्पोर्टस कॉम्पलेक्स के निर्माण का निर्णय लिया गया है।
देहरादून स्थित महाराणा प्रताप तथा अगस्तमुनि (रूद्रप्रयाग) में स्पोर्ट कॉम्पलेक्स की स्थापना की गई है।
देहरादून स्पोर्टस कॉलेज को विस्तृत किया गया है।
ग्रामीण क्षेत्रों में खेल सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से पौड़ी, देहरादून तथा हरिद्वार में एक-एक युवा केन्द्र बनाये जा रहे हैं।
उत्तरकाशी व ऊधम सिंह नगर में एक-एक युवा केन्द्र बनाये जा रहे हैं।
भारत सरकार के सहयोग से पौड़ी में पांच स्टेडियम निर्मित किये जा रहे हैं।
पौड़ी स्थित रांसी स्टेडियम एशिया का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित स्टेडियम है।
खिलाड़ियों के प्रोत्साहन के लिए कई योजनाएं तथा पुरस्कार शुरू किये गये हैं।
प्रत्येक विकास खंड में ग्राम स्तर पर महिला मंगल दलों का गठन किया गया है तथा अवैतनिक महिला संगठकों का मानदेय दोगुना (1500 रू मासिक) कर दिया गया है।
राज्य में पर्वतारोहण, स्कीइंग, राफ्टिंग, केनोइंग आदि साहसिक खेलों के विकास पर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि ये खेल पर्यटन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कालेज देहरादून के कैम्पस में 7 फुटबाल मैदान, 3 क्रिकेट मैदान, 3 स्क्वैश पूल, 3 बास्केटबाल कोर्ट और एक जिमनास्टिक सेन्टर है। इस प्रकार यह राज्य में सर्वाधिक खेल मैदानों वाला स्थान है।
देहरादून में राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम व 25 हजार दर्शक की क्षमता के कॉम्पलेक्स का निर्माण किया जा रहा है।
महाराणा प्रताप स्पोटर्स कॉलेज रायपुर, देहरादून में बैडमिंटन, बॉलीबाल, बास्केटबाल, टेबल टेनिस, ताइक्वांडो आदि खेल हेतु इंडोर बहुद्देशीय क्रीड़ा हॉल, बाक्सिंग के खिलाड़ियों के प्रशिक्षण हेतु दो बॉक्सिंग रिंग का इंडोर हॉल, एथलेटिक्स सिथैटिक, ट्रैक में तीन हजार दर्शक क्षमता का पवेलियन व चैंज रूम का निर्माण किया जा रहा है जबकि 400 मीटर एथलेटिक्स सिथेंटिक ट्रैक का कार्य पूरा हो चुका है।
प्रमुख खेल खिलाड़ी
निशानेबाजी
जसपाल राणा - टिहरी निवासी जसपाल राणा (गोल्डन ब्वाय) एक अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाज हैं जो कि कुल मिलाकर 250 से अधिक पदक जीत चुके हैं। इन्हें पदमश्री व अर्जुन पुरस्कार सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
सुषमा राणा - जसपाल राणा की बहन सुषमा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब तक अनेक पद जीत चुकी हैं। 2004 के सैफ खेलों में दो स्वर्ण जीती थी।
सुभाष राणा - जसपाल राणा के भाई सुभाष राणा अब तक राष्ट्रीय एवं अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर 100 से अधिक पदक जीत चुके हैं।
प्रवीण रावत - ये भी टिहरी के हैं जोकि राष्ट्रीय स्तर पर अब तक 5 स्वर्ण जीत चुके हैं।
अभिनव बिंद्रा - देहरादून निवासी बिन्द्रा विभिन्न राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अब तक 20 से अधिक स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। इन्होनें 2008 के बीजींग ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीता था। इन्हें राजीव गांधी खेल रत्न सहित अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं।
अशोक कुमार शाही - देहरादून निवासी श्री शाही राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अक तक 30 से अधिक स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके हैं।
हिमाद्री थपलियाल - दून की 12वीं कक्षा की छात्रा थपलियाल 2007 में विश्व जूनियर महिला निशानेबाजी में कई पदक प्राप्त की थी।
हॉकी
हरदयाल सिंह - देहरादून निवासी श्री सिंह भारत की ओलम्पिक स्वर्ण पदक विजेता टीम के एक सदस्य थे। 1950 में केन्या टूर में खेले मैचों में इन्होने कुल 243 में से 96 गोल अकेले किया थे।
सैय्यद अली - नैनीताल निवासी श्री अली ने भारतीय टीम के दो बार स्वर्ण पदक दिलाये थे। ओलम्पिक में भी भाग लिया था। 1975 में उ.प्र. का लक्ष्मण पु. मिला था।
आर.एस. रावत - नैनीताल निवासी श्री रावत ने ओलम्पिक खेलों में भागीदारी के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 3 स्वर्ण भी दिलाया था। इन्हें भारत के श्रेष्ठ गोलकीपर खिलाड़ी के रूप में पुरस्कृत किया जा चुका है।
ललितशाह - नैनीताल निवासी श्री शाह राष्ट्रीय स्तर पर 4 बार स्वर्ण पदक विजेता रहे और जर्मनी व हॉलैंड में खेलते हुए मैन ऑफ द सीरीज प्राप्त किये थे।
हरि भाकुनी - अल्मोड़ा निवासी भाकुनी जूनियर हॉकी टीम के गोलकीपर रहे हैं।
भूपाल िंसंह नेगी - ये भी अल्मोड़ा के निवासी है। जो कि राष्ट्रीय स्तर पर 5 बार स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं।
ताइक्वांडो
मनीष सनवाल - अल्मोड़ा निवासी सनवाल 5वीं अंतर्राष्ट्रीय ताइक्वांडो चैम्पियनशिप में स्वर्ण तथा राष्ट्रीय स्तर पर 1 बार स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं।
सुरेन्द्र भंडारी - अल्मोड़ा निवासी श्री सुरेन्द्र सैफ खेलों में 1 राष्ट्रीय स्तर पर 5 स्वर्ण तथा एशियाई खेलों में 1 कांस्य पदक विजेता रहे हैं।
फुटबाल
रामबहादुर क्षेत्री - ये देहरादून के निवासी हैं। रोम में आयोजित ओलंपिक खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण इन्हें चाइना वॉल के उपनाम से पुकारा जाने लगा। ये 2 बार राष्ट्रीय स्तर पर फुटबालर ऑफ द इयर व बेस्ट मिडफिल्डर ऑफ द सेंचुरी अलंकरण से सम्मानित हो चुके हैं।
त्रिलोक सिंह बसेड़ा - पिथौरागढ़ निवासी बसेड़ा अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फुटबाल खिलाड़ी रहे हैं। 1962 में जकार्ता में आयोजित एशियन फुटबाल प्रतियोगिता में इन्हें आयरन वाल ऑफ इंडिया की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
रमेश सिंह रावत - अल्मोड़ा निवासी श्री रावत का राष्ट्रीय स्तर पर 11 गोलों का रिकॉर्ड है।
वीर बहादुर गुरूंग - ये देहरादून के निवासी हैं। इन्होंने एशियाई खेलों में खेला है।
प्रताप सिंह पटवाल - प्रताप सिंह फुटबाल के प्रसिद्ध रेफरी हैं। अबतक ये राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 400 से अधिक मैचों में रेफरी की भूमिका निभा चुके हैं।
भारोत्तोलन
के.सी. सिंह ’बाबा‘ - ऊधम सिंह नगर निवासी श्री बाबा उत्तरांचल के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय भारोत्तोलक रहे हैं। ये स्ट्रागेस्ट मैन ऑफ यू.पी. दो बार राष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक विजेता तथा 1979 के राष्ट्रीय रिकॉर्ड धारक हैं। 2004 में नैनीताल से सांसद है।
हंसा मनराल शर्मा - पिथौरागढ़ की सुश्री मनराल द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित प्रथम महिला है। इन्होनें राष्ट्रीय स्तर पर 4 स्वर्ण के अलावा महिला भारोत्तोलन के 7 राष्ट्रीय रिकॉर्ड भी बनाये।
मुक्केबाजी
हरिसिंह थापा - पिथौरागढ़ निवासी श्री थापा राष्ट्रीय स्तर पर 4 तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 1 स्वर्ण व रजत पदक विजेता होने के साथ ही 10 वर्षों तक मिडिल वेट में सर्विसेज चैम्पियन भी रहे हैं।
धरम चंद - पिथौरागढ़ निवासी श्री चंद राष्ट्रीय स्तर पर 5 तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 1 स्वर्ण पदक विजेता है।
राजेन्द्र कुमार पुनेड़ा - पिथौरागढ़ निवासी श्री पुनेड़ा 1982 में मिडिल वेट में भारत के सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाज रहे।
नरेन्द्र सिंह बिष्ट - पिथौरागढ़ निवासी श्री बिष्ट राष्ट्रीय स्तर पर 2 तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 2 स्वर्ण व 1 रजत विजेता रहे और ओलम्पिक खेल में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था।
परम बहादु मल्ल - देहरादून निवासी श्री मल्ल एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं। 1962 में इन्हें अर्जुन पुरस्कार दिया गया था।
जूड़ों
कमला रावत - अल्मोड़ा निवासी सुश्री कमला रावत 1993 से 2002 तक सीनियर वर्ग में राष्ट्रीय चैम्पियन रही और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 8 स्वर्ण पदक विजेता रही। फ्रांस द्वारा इन्हें ब्लैक बेल्ट फार्स्ट डैन की उपाधि दी गई।
संजय जोशी - ऊधम सिंह नगर के श्री जोशी 4 बार राष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कांस्य पदक विजेता रहे।
क्रिकेट
तारा रावत - सुश्री तारा रावत पौड़ी की है। इन्होंने श्रीलंका दौरे पर गई भारतीय महिला टीम के एक सदस्य के रूप में 6 विकेट लिया था।
महेन्द्र सिंह धोनी - यद्यपि धोनी का जन्म रांची में हुआ था, लेकिन ये मूल रूप से अल्मोड़ा के ल्वाली गांव के निवासी हैं। इन्होनें अपने नेतृत्व में भारत को कई विजयी दिलाई है।
सितम्बर 2010 में प्रदेश सरकार ने धोनी को कार्बेट व राजाजी नेशनल पार्क का वाइल्ड लाईफ वार्डन की मानद उपाधि प्रदान की और बाघों के संरक्षण हेतु चलाये जाने वाले अभियान को प्रोत्साहित करने के लिए ब्रान्ड अम्बेसडर नियुक्त किया है।
एकता बिष्ट - अल्मोड़ा में जन्मी एकता बिष्ट भारतीय महिला क्रिकेट टीम की एक प्रमुख बॉलर है। 2011 में इन्होनें अन्तराष्ट्रीय क्रिकेट में प्रवेश किया और अबतक 100 से अधिक वनडे और 25 से अधिक टी-20 मैच खेल चुकी है।
स्नेह राणा - जोहड़ी गांव, देहरादून की रहने वाली स्नेह राणा ने 2014 में श्रीलंका के खिलाफ हुई सीरीज के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय वनडे में प्रवेश किया और तब से अनेक मैच खेल चुकी है।
उन्मुक्त चंद - मूल रूप से खडक्यू मल्या गांव (पिथौरागढ़) के निवासी उन्मुक्त चंद भारत के अंडर - 19 टीम के कप्तान रहे हैं। इन्होनें अपने नेतृत्व भारत को 3 बार अंडर-19 क्रिकेट विश्व कप दिलाया। 2013 में इन्हें राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा 11 लाख रू का चेक देकर पुरस्कृत किया गया था।
शतरंज
परिमार्जन नेगी - कोलानी गांव (चमोली) के निवासी परिमार्जन को सबसे कम उम्र का इंटरनेशनल मास्टर होने का गौरव प्राप्त हुआ है। ये अब तक कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय खिताब जीत चुके है। 2010 में इन्हें अर्जुन पुरस्कार दिया गया।
कुछ अन्य प्रमुख खिलाड़ी विविध
ऽ मधुमिता बिष्ट – बैडमिन्टन की खिलाड़ी है। 2006 में पदमश्री से सम्मानित है। इनको बैडमिंटन क्वीन के नाम से जाना जाता है।
ऽ अरूण जखमोला – बॉलीबाल खिलाड़ी
ऽ शबाली बानू – राष्ट्रीय टेबिल टेनिस खिलाड़ी
ऽ सुशीला राणा – हैंडबाल खिलाडी
ऽ राहुल बिष्ट – बाडी बिल्डिंग में मिस्टर इंडिया खिताबधारी
ऽ सुरेन्द्र सिंह कनवासी – नौकायन खिलाड़ी। अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित
साहसिक खेल / पर्यटन
राज्य में ट्रेकिंग्स, रिवर राफ्टिंग, माउण्टेनियरिंग, स्कीइंग, आइस हॉकी, पैराग्लाइिंडंग, रॉक क्लाइबिंग व वन्य प्राणी दर्शन आदि साहसिक खेलों की व्यापक संभावनाऐं हैं। इन साहसिक क्रीड़ाओं में भाग लेने के लिए प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से हजारों पर्यटक आते हैं। अतः राज्य सरकार इन आयकारी खेलों के विकास पर विशेष ध्यान दे रही है।
स्कीइंग - यह सर्वाधिक लोकप्रिय साहसिक खेल है। चमोली जिले में स्थित औली स्कीइंग तथा अन्य शीतकालीन खेलों के लिए सबसे प्रसिद्ध स्थल है। यह केन्द्र अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है जो कि नंदादेवी, कामेट, माणा शिखर, द्रोणगिरि, नीलकंठ, हाथी-गौरी आदि पर्वतों के मध्य है। 1987 से यहां प्रतिवर्ष गढ़वाल मंडल विकास निगम द्वारा स्कीइंग महोत्सव भी मनाया जाता है। यहां स्कीइंग हेतु सर्वोत्तम समय है मध्य दिसम्बर से मार्च तक।
औली में शीतकालीन हिमक्रीड़ा स्थल एवं रज्जुमार्ग का शुभारम्भ जुलाई, 1983 में इंदिरा जी ने किया था। अक्टू. 1993 में यह लोकर्पित किया गया। औली में खेल प्रेमियों व पर्यटकों हेतु फाइबर के छोटे-छोटे आवास, 600 मी. की चेयर लिफ्ट व स्नोबीटर्स आदि बनाये गये हैं। वैसे जोशी मठ से औली की दूरी 15 किमी. है, लेकिन रोपवे से मात्र 4.5 किमी. है। यह एशिया का सबसे लम्बा व सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित रोपवे है।
रिवर राफ्टिंग - जलक्रीड़ा भी एक लोकप्रिय साहसिक खेल है। इसके अंतर्गत वाटर स्कीइंग, स्पीड वोटिंग, पैडल बोटिंग, रोविंग सेलिंग केनोइंग तथा क्याकिंग आदि खेल सम्मिलित है।
ऋषिकेश-बद्रीनाथ राजमार्ग पर गंगा के तट पर स्थित कोड़ियाला रिवर राफ्टिंग का सर्वोत्तम स्थान है। यहां प्रशिक्षण की सुविधा है तथा आवश्यक सामग्रियां भी सुलभ है।
देवप्रयाग से ऊपर अलकनंदा में तथा रामनगर में कोसी में रिवर राफ्टिंग की सुविधाएं हैं।
नैनीताल में पाल नौकायन दौड़ तथा नानकमत्ता के नानक सागर में भी जल क्रीड़ाओं के आयोजन किये जाते हैं।
ट्रेकिंग्स - ट्रेकिंग्स अर्थात भ्रमण अपेक्षाकृत सरल और कम बजट वाल साहसिक पर्यटन है। यह समूह में अथवा अकेले थोडे अनुभवों से किया जा सकता है। इसमें अनेक दुर्गम व लोकप्रिय स्थानों के प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ-साथ स्थानीय संस्कृति को निकट से देखने का अवसर मिलता है। ट्रेकिग्स के लिए गढ़वाल तथा कुमाउं मंडल विकास निगम अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में अनुभवी गाइडस और अन्य सुविधाएं प्रदान करते हैं।
रॉक क्लाइबिंग - दुर्गम पहाड़ी स्थानों पर विभिन्न तकनीकों के माध्यम से चढ़ने को रॉक क्लाइबिंग कहते हैं। बुरांसखांडा (टिहरी), सोनगड तथा टेखला, थराली व तपोवन आदि प्रमुख स्थल है। नेहरू पर्वतारोहण संस्थान द्वारा रॉक क्लाइविंग का प्रशिक्षण एवं अन्य व्यवस्थाएं दिए जाते हैं।
राज्य में वास्तविक रूप से पर्वतारोहण की नींव टिलमैन व ओडेल के 1936 में नंदा देवी शिखर पर सफलता पूर्वक चढ़ने के साथ पडी।
1954 में एडमंड हिलेरी व तेनजिंग नोर्वे ने एवरेस्ट की चोटी पर आरोहण करके भारत में पर्वतारोहण की नींव डाली।
1961 में नई दिल्ली में भारतीय पर्वतारोहण फांउडेशन की स्थापना की गई।
राज्य में पर्वतारोहण एवं पथारोहण को नियमित ढंग से चलाने के लिए 1965 में उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान की स्थापना की गई। राज्य के अधिकांश पर्वतारोही यहीं से प्रशिक्षित है।
प्रमुख पर्वतारोही
जे.सी. जोशी - राष्ट्रीय पर्वतारोही श्री जोशी का जन्म अल्मोड़ा में हुआ था। वे पर्वतारोहण संस्थान उत्तरकाशी के प्रधानचार्य भी रह चुके हैं। इन्हें अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया गया था।
बछेन्द्रीपाल - इनका जन्म मई 1954 में उत्तरकाशी में हुआ था। 1982 में इन्होनें उत्तरकाशी स्थित इंस्टीटयूट ऑफ माउण्टेनियरिंग से बेसिक एवं एडवान्स माउण्टेनियरिंग कोर्स पास किया और उसी वर्ष माउण्ट काला नाग चोटी का सफल आरोहण किया। 1983 में ये गंगोत्री, रूदगैरा और माणा चोटियां के प्री-एवरेस्ट अभियान दलों की सदस्य रहीं। 24 मई 1984 को इन्होंने विश्व के सर्वोच्च पर्वत शिखर एवरेस्ट पर आरोहण कर देश की पहली और विश्व की पांचवी महिला होने का कीर्तिमान अर्जित किया।
चंद्रप्रभा एतवाल - पिथौरागढ़ की ऐतवाल ने 1984 इंडियन माउण्टेनियरिंग फाउण्डेशन द्वारा प्रायोजित एवरेस्ट अभियान की एक सदस्य रही। इन्होंने 28 बार हिमालय की दुर्गम चोटियों पर चढ़ने में सफलता पाया। रिवर राफ्टिंग और ट्रेकिंग में भी इन्होनें कई कीर्तिमान बनाया है। अबतक इन्हें कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
सुमन कुटियाल - पिथौरागढ़ जिले की इस अंतर्राष्ट्रीय पर्वतारोही द्वारा 16 मई 1993 को एवरेस्ट पर आरोहण के लिए भारत सरकार द्वारा (1994 में) नेशनल एडवेंचर एवार्ड से सम्मानित किया गया था।
लवराज सिंह धर्मसक्तू - बौना गांव पिथौरागढ़ के इस अंतर्राष्ट्रीय पर्वतारोही ने भारत/विश्व की कई चोटियों पर सफल आरोहण किया है। एवरेस्ट का इन्होने 7 बार आरोहण किया है।
मोहन सिंह गुंज्याल - ये पिथौरागढ़ के निवासी हैं, जो कि पर्वताराही और स्कीइंग खिलाड़ी हैं। स्कीइंग में अब तक 15 स्वर्ण पदक पा चुके हैं।
हरीश चंद्र सिंह रावत - इन्होंने 1965 में चौथे एवरेस्ट अभियान दल के सदस्य के रूप में लक्ष्य तक पहुंच कर पर्वतारोहण की दुनिया में एक कीर्तिमान स्थापित किया था।
हर्षवर्धन बहुगुणा - इन्होनें दिसम्बर 1958 में सेना में कमीशन प्राप्त किया और 1971 में अभियान हेतु भारत-ब्रिटिश संयुक्त अभियान के एकमात्र सदस्य के रूप में चयनित हुए थे।
हुकुम सिंह रावत - सेना में रहते हुए ये 1963 से 66 तक लद्दाख के कई शिखरों पर चढ़ने में सफल रहे। 1991 मे इनके नेतृत्व में पर्वतारोही दल कंचनजंघा पर आरोहण में सफल रहा। 1992 में इन्होनें छः सदस्यों को एवरेस्ट शिखर पर चढ़ाकर विजय पताका फहराई। पर्वतारोहण संस्मरणों पर लिखी कंचनजंघा इनकी एक चर्चित पुस्तक है।
डॉ. हर्षवंती बिष्ट - इनका जन्म 1954 में पौड़ी में हुआ था। 1981 में नंदादेवी व 1984 में इन्होंने एवरेस्ट पर आरोहण करने वाले अभियान दल के सदस्य के रूप में भाग लिया था। 1981 में इन्हें अर्जुन पुरस्कार मिला था।
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