उत्तराखंड की विलुप्त होती भाषाएँ: जौनसारी, भोटिया और उनका संरक्षण…

उत्तराखंड केवल अपने प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक स्थलों के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी विविध और समृद्ध भाषाई विरासत के लिए भी जाना जाता है। यहाँ की कई भाषाएँ और बोलियाँ अब संकट में हैं — जिनमें भोटिया, जौनसारी, रंङ भाषा, जाड़ भाषा, और रौंठा (थारु बोली) प्रमुख हैं। बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश, पलायन, और शहरीकरण के कारण ये भाषाएँ धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं।


प्रमुख भाषाएँ जो संकट में हैं:

1️⃣ भोटिया भाषा:

  • यह भाषा भारत-तिब्बत सीमा के पास रहने वाले भोटिया जनजाति के लोगों द्वारा बोली जाती है।
  • यह तिब्बती-बर्मन परिवार की भाषा है।
  • भोटिया भाषा में लोककथाएँ, धार्मिक मंत्र, और पारंपरिक गीतों की समृद्ध धरोहर है।
  • आज यह भाषा केवल बुजुर्गों तक सीमित रह गई है।

2️⃣ जौनसारी भाषा:

  • उत्तरकाशी और चकराता क्षेत्र में बोली जाने वाली यह भाषा पहाड़ी भाषाओं में से एक है।
  • यह गढ़वाली और हिमाचली बोली के मेल जैसी लगती है।
  • स्कूल और मीडिया में हिंदी के बढ़ते प्रभाव के कारण यह पीढ़ी दर पीढ़ी कमजोर होती जा रही है।

3️⃣ रंङ और जाड़ भाषा:

  • यह भाषाएँ सीमावर्ती क्षेत्रों जैसे धारचूला, मुनस्यारी, और नंदा देवी घाटी के आस-पास बोली जाती हैं।
  • इन भाषाओं का कोई स्थायी लिपि नहीं है, जिससे इनका लिखित दस्तावेजीकरण बहुत सीमित है।

संकट के कारण (Why Are They Endangered?)

  1. पलायन और शहरीकरण — गाँवों से शहरों की ओर पलायन के कारण भाषा का सामुदायिक प्रयोग घट रहा है।
  2. शिक्षा में हिंदी और अंग्रेज़ी का वर्चस्व — स्थानीय भाषाएँ स्कूलों में नहीं पढ़ाई जातीं।
  3. मीडिया का प्रभाव — टीवी, इंटरनेट, और सोशल मीडिया ने युवा पीढ़ी को मुख्यधारा की भाषाओं से जोड़ा।
  4. लिखित रूप और लिपि का अभाव — ज़्यादातर बोलियाँ सिर्फ मौखिक रूप में मौजूद हैं।
  5. सरकारी प्रयासों की कमी — संरक्षण के लिए ठोस नीति नहीं।

संरक्षण के उपाय (Steps for Preservation):

  1. स्कूलों में स्थानीय भाषा को शामिल करना
    – प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को बढ़ावा देना।
  2. डिजिटल डाक्यूमेंटेशन
    – लोककथाओं, गीतों, कहावतों को रिकॉर्ड और डिजिटाइज़ करना।
  3. बुजुर्गों से भाषा सीखने की पहल
    – युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों से यह भाषाएं सीखे।
  4. भाषा उत्सव और मेला
    – गांवों में “भाषा महोत्सव” जैसे आयोजन करके लोगों को जोड़ना।
  5. सरकारी संरक्षण नीति
    – यूनेस्को और भाषा संस्थानों के सहयोग से भाषा-संरक्षण योजनाएं।
  6. ऐप और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर पाठ्य सामग्री बनाना
    – मोबाइल ऐप्स में स्थानीय भाषा सीखने के कोर्स।

उत्तराखंड की भाषाएँ न केवल संवाद का माध्यम हैं, बल्कि यह संस्कृति, इतिहास और लोकजीवन की आत्मा हैं। यदि इनका संरक्षण नहीं किया गया तो हम अपनी पहचान और विरासत का एक अमूल्य हिस्सा खो देंगे। आज जरूरत है कि सरकार, समाज और युवा मिलकर इन भाषाओं को संजोएं और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाएं।


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