“खाली होते पहाड़: उत्तराखंड में बेरोजगारी और पलायन का संकट” (The Emptying Hills: The Crisis of Unemployment and Migration in Uttarakhand)

सरकारी आंकड़ों और रिपोर्ट्स के अनुसार उत्तराखंड के लगभग 1000 से अधिक गांव या तो पूरी तरह खाली हो चुके हैं या वहाँ जनसंख्या बेहद कम बची है। इन गांवों को “घोस्ट विलेज” (भूतिया गांव) कहा जाता है।
⛰️ चमोली, पिथौरागढ़, बागेश्वर, उत्तरकाशी और टिहरी जैसे पर्वतीय जिलों में यह संकट और भी गहरा है।

➤ उदाहरण:

2018 में गठित पलायन आयोग ने बताया कि 2007 से 2017 के बीच करीब 7 लाख लोग गांवों से पलायन कर गए। अनुमान है कि यह संख्या अब (2025 तक) 10 लाख से अधिक हो चुकी है।


🔹 बेरोजगारी: जड़ में छिपा कारण

उत्तराखंड में कृषि, बागवानी, पर्यटन या उद्योग जैसे क्षेत्रों में रोजगार के अवसर सीमित हैं। सरकारी नौकरियाँ कम हैं और निजी क्षेत्र पर्याप्त नहीं। पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी युवाओं को आय के स्थायी स्रोत नहीं मिलते।

✅ मुख्य कारण:

  1. बिना प्लानिंग के विकास – हिल एरिया को अनदेखा कर केवल मैदानी क्षेत्र पर फोकस।
  2. औद्योगिक इकाइयों की कमी – पर्वतीय क्षेत्रों में फैक्ट्री या बिज़नेस हब नहीं बन पाए।
  3. टूरिज्म का असमान विकास – केवल कुछ ही क्षेत्र जैसे मसूरी, नैनीताल या चारधाम तक सीमित।
  4. शिक्षा और स्किल की कमी – युवाओं को ट्रेनिंग और नए जमाने की स्किल नहीं मिल पा रही।

🔹 बढ़ते शहरीकरण का दबाव

देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी जैसे शहरों में भारी आबादी का जमावड़ा हो गया है। इससे बुनियादी सुविधाओं पर बोझ बढ़ा है, जबकि गांवों में स्कूल, अस्पताल, सड़कें और बाजार सब बिखर रहे हैं।


🔹 रिवर्स माइग्रेशन की असफल कोशिशें

कोविड-19 के समय जब हजारों प्रवासी वापस लौटे थे, तब सरकार ने “रिवर्स माइग्रेशन” को एक अवसर माना था। लेकिन गांवों में जरूरी आधारभूत सुविधाओं (बिजली, इंटरनेट, मार्केट, स्किल ट्रेनिंग) की कमी के कारण ज़्यादातर लोग फिर से पलायन कर गए।


🔹 इस संकट के दुष्परिणाम

  1. गांव वीरान हो रहे हैं – स्कूल बंद, खेती बंजर, घर खंडहर।
  2. संस्कृति का क्षरण – लोककला, बोली और पारंपरिक ज्ञान खत्म हो रहा है।
  3. जंगलों पर संकट – मानव उपस्थिति कम होने से आग लगने की घटनाएँ बढ़ी हैं।
  4. सीमाई क्षेत्रों की सुरक्षा पर असर – सीमावर्ती गांवों के खाली होने से सुरक्षा का खतरा।

🔹 समाधान की संभावनाएं

✅ पहाड़ों में स्थानीय रोजगार आधारित योजनाएं चलाना – जैसे बागवानी, फूड प्रोसेसिंग, हर्बल खेती।
इको-टूरिज्म और होमस्टे को बढ़ावा देना।
डिजिटल इंडिया योजना के तहत पहाड़ों तक इंटरनेट और ई-कॉमर्स को पहुँचाना।
युवाओं को स्किल ट्रेनिंग देना – कंप्यूटर, ऑनलाइन बिजनेस, लोकल क्राफ्ट में।
सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा की मजबूत व्यवस्था।


उत्तराखंड के गांव सिर्फ भौगोलिक स्थान नहीं हैं, वे हमारी संस्कृति, जड़ों और पहचान का हिस्सा हैं। यदि हम आज कदम नहीं उठाते तो कल ये पहाड़ केवल पर्यटन की तस्वीरों में बचे रहेंगे, जीवन से नहीं।
यह समय है “विकास” को सिर्फ सड़कों और इमारतों से नहीं, बल्कि गांवों की खुशहाली से मापने का।


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