“उत्तराखंड और हाइड्रो-एनर्जी: विकास की रफ्तार या विनाश की आहट?” Uttarakhand and Hydropower: Speed of Development or Sound of Destruction?

उत्तराखंड देश की ऊर्जा राजधानी बनने की ओर भी अग्रसर है। यहाँ की तीव्र गति से बहने वाली नदियाँ – गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी आदि – जल विद्युत (Hydropower) के लिए अपार संभावनाएँ रखती हैं।
सरकार इसे ऊर्जा आत्मनिर्भरता और आर्थिक विकास का माध्यम मानती है, लेकिन पर्यावरणविद इसे एक ‘धीमे जहर’ के रूप में देख रहे हैं।

हाइड्रो-एनर्जी क्या है?

जल विद्युत (Hydropower) ऐसी ऊर्जा है जो नदियों की प्रवाह शक्ति से उत्पन्न होती है।
बांध बनाकर जल को एकत्रित किया जाता है और फिर उसकी धार से टर्बाइन घुमाकर बिजली बनाई जाती है।

उत्तराखंड में मुख्यतः Run-of-the-River Projects और Reservoir-Based Projects पर कार्य हो रहा है।


उत्तराखंड में जल विद्युत की वर्तमान स्थिति

  • राज्य में संभावित क्षमता: लगभग 27,000 मेगावाट (MW)
  • वर्तमान में उत्पादन: करीब 3,500 MW
  • प्रमुख परियोजनाएँ:
    • टिहरी बांध परियोजना (1000 MW)
    • कोटेश्वर परियोजना
    • विष्णुगढ़-पीपलकोटी (NTPC)
    • पंचेश्वर डैम (भारत-नेपाल प्रोजेक्ट)

राज्य की 80% ऊर्जा परियोजनाएँ पर्वतीय नदियों पर आधारित हैं।


लाभ: विकास और आत्मनिर्भरता

1. ऊर्जा उत्पादन में आत्मनिर्भरता

राज्य अपने लिए बिजली बनाकर दूसरे राज्यों को बेच सकता है – जिससे राजस्व में वृद्धि होती है।

2. रोजगार के अवसर

बड़ी परियोजनाओं के साथ स्थानीय स्तर पर रोजगार और व्यवसाय का सृजन होता है।

3. आधारभूत संरचना का विकास

सड़कें, पुल, बिजली की लाइनों का निर्माण – इससे पूरे क्षेत्र का सामाजिक-आर्थिक विकास होता है।

4. पर्यावरण के अनुकूल (सैद्धांतिक रूप से)

कोयला या डीजल पर आधारित ऊर्जा के मुकाबले जलविद्युत को “ग्रीन एनर्जी” कहा जाता है।


खतरे: विनाश की आहट

1. भूकंपीय क्षेत्र में निर्माण

उत्तराखंड सिस्मिक ज़ोन IV और V में आता है – मतलब भूकंप संभावित क्षेत्र।
बड़े डैम्स जमीन को कमजोर करते हैं।

2. प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि

केदारनाथ त्रासदी (2013), जोशीमठ धंसाव (2023), चमोली ग्लेशियर हादसा – सब हाइड्रो प्रोजेक्ट्स से जुड़ी घटनाएँ मानी जाती हैं।

3. जैव विविधता पर प्रभाव

बांध बनने से नदियाँ प्राकृतिक रूप से बहना बंद कर देती हैं। इससे मछलियाँ, जलीय जीवन, वनस्पति प्रभावित होती हैं।

4. विस्थापन और पलायन

बांधों के कारण हजारों परिवारों को गांव खाली करने पड़ते हैं। मुआवजा उचित नहीं होता, और उनकी संस्कृति खत्म होती है।

5. धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत पर संकट

गंगा और उसकी सहायक नदियों को बांधने से कई धार्मिक स्थलों पर संकट पैदा होता है।


स्थानीय विरोध और जनआंदोलन

  • चिपको आंदोलन के बाद अब नदी बचाओ आंदोलन, जोशीमठ संघर्ष, भागीरथी एक्शन ग्रुप जैसे कई संगठन सामने आ चुके हैं।
  • स्वामी सानंद (G.D. अग्रवाल) की गंगा को अविरल रखने की माँग पर तपस्या और निधन ने आंदोलन को और बल दिया।

विशेषज्ञों की राय

विशेषज्ञराय
पर्यावरणविद“पहाड़ों में बड़े बांध आत्मघाती कदम हैं”
नीति आयोग“छोटे हाइड्रो प्रोजेक्ट्स पर ज़ोर दें”
स्थानीय पंचायतें“स्थानीय सहमति के बिना परियोजनाएं न हों”

समाधान और संतुलन की राह

  1. Run-of-the-River प्रोजेक्ट्स को प्राथमिकता
    – इससे बांध का आकार छोटा रहेगा और पर्यावरणीय प्रभाव कम होगा।
  2. नवीन ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा
    – सोलर, विंड, बायोएनर्जी जैसी ग्रीन एनर्जी पर ज़ोर देना चाहिए।
  3. जन सहभागिता
    – परियोजना शुरू करने से पहले स्थानीय ग्रामसभाओं की अनुमति अनिवार्य हो।
  4. EIA रिपोर्ट्स को पारदर्शी बनाना
    – पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट्स को जनता के लिए सार्वजनिक करें।
  5. Relocation और मुआवजा नीति में सुधार
    – विस्थापित लोगों के लिए बेहतर पुनर्वास और स्थायी रोजगार की गारंटी हो।

उत्तराखंड के पहाड़ ऊर्जा का भंडार हैं – लेकिन संतुलन जरूरी है
अगर हाइड्रो प्रोजेक्ट्स को अनियंत्रित रूप से बढ़ाया गया, तो यह विकास की नहीं, विनाश की योजना बन जाएगी।

हमें विकास की गति और प्रकृति की शांति के बीच संतुलन बनाकर चलना होगा – ताकि पहाड़ भी जिएं और लोग भी।


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