उत्तराखंड, जिसे “देवभूमि” कहा जाता है, अपनी अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता, हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं, नदियों और घने जंगलों के लिए जाना जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह राज्य बार-बार प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहा है—चाहे वह 2013 की केदारनाथ त्रासदी हो, ऋषिगंगा ग्लेशियर टूटने की घटना (2021), या हाल के भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं।
इन आपदाओं के पीछे क्या सिर्फ़ प्रकृति का क्रोध है, या इंसानी लापरवाही भी उतनी ही ज़िम्मेदार है? यही सवाल आज गंभीर बहस का विषय है।
प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला
- 2013 की केदारनाथ आपदा
- भारी बारिश और ग्लेशियर झील फटने से आई बाढ़ ने हजारों जानें लीं।
- सैकड़ों गाँव तबाह हुए, धार्मिक स्थल क्षतिग्रस्त हुए।
- ऋषिगंगा ग्लेशियर टूटना (2021)
- अचानक ग्लेशियर का हिस्सा टूटकर नदी में गिरा, जिससे बाढ़ और तबाही हुई।
- हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट बह गए, और कई मजदूर मारे गए।
- भूस्खलन और सड़क धंसना
- जोशीमठ का ज़मीन धंसना एक बड़ा उदाहरण है, जहां अंधाधुंध निर्माण और ज़मीन के भूगर्भीय ढांचे की अनदेखी के कारण लोगों के घरों में दरारें आ गईं।
4. नवीनतम आपदा का मामला: 5 अगस्त, 2025 का धराली-थराली घटना
क्या हुआ?
5 अगस्त 2025 को, उत्तरकाशी जिले के धराली (थराली/कीर गंग) क्षेत्र में एक ज़बरदस्त cloudburst ने अचानक बाढ़ और मलबे की धार उत्पन्न की, जिसने पूरे गाँव को बहा दिया। इस घटना में कम से कम चार व्यक्ति मारे गए, कई लोग लापता हैं और दर्जनों घायल हुए।
प्राकृतिक प्रतिक्रिया और बचाव कार्य
भारतीय सेना (Ibex ब्रिगेड), NDRF, SDRF और स्थानीय प्रशासन ने救援 अभियान तुरंत शुरू कर दिया। अब तक लगभग 190 लोग बचा लिए गए हैं, लेकिन मरने वालों की संख्या और लापता व्यक्तियों की जानकारी अभी भी स्पष्ट नहीं है।
कारण और भयावहता
IMD के अनुसार, इस क्षेत्र में अचानक भारी बारिश—जो क्लाउडबर्स्ट के अंतर्गत आती है—ने नदी का जलस्तर बढ़ा दिया, जिससे तबाही बढ़ी। यह घटना क्लाइमेट चेंज और हिमालय की संजीदा पारिस्थितिकी के खतरे को दर्शाती है।
मानव लापरवाही की भूमिका
हालांकि इन घटनाओं में जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक कारण भी ज़िम्मेदार हैं, लेकिन इंसानी गतिविधियों ने खतरे को और बढ़ा दिया है—
- अत्यधिक निर्माण कार्य
- बिना भूगर्भीय सर्वे के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट, चौड़ीकरण सड़कों का, और होटलों का निर्माण।
- वनों की कटाई
- पर्यटन और सड़क परियोजनाओं के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई, जिससे भूस्खलन की संभावना बढ़ती है।
- जलवायु परिवर्तन में योगदान
- कार्बन उत्सर्जन और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का सीधा असर उत्तराखंड पर।
- नदी किनारे निर्माण
- बाढ़ क्षेत्रों में होटल और घर बनाना, जिससे बाढ़ के समय तबाही कई गुना बढ़ जाती है।
प्रकृति का प्रकोप या चेतावनी?
प्राकृतिक आपदाएं पूरी तरह रोकी नहीं जा सकतीं, लेकिन उनकी तीव्रता और नुकसान को कम किया जा सकता है। बार-बार होने वाली घटनाएं दरअसल प्रकृति की एक चेतावनी हैं कि हम उसकी सीमाओं से आगे बढ़ चुके हैं।
समाधान और सुझाव
- सतत विकास नीति (Sustainable Development Policy)
- निर्माण कार्य भूगर्भीय और पर्यावरणीय मानकों के तहत हों।
- ईको-टूरिज्म को बढ़ावा
- भीड़भाड़ वाले पर्यटन के बजाय नियंत्रित और पर्यावरण-अनुकूल पर्यटन।
- अर्ली वार्निंग सिस्टम
- बाढ़ और भूस्खलन की पूर्व चेतावनी के लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग।
- स्थानीय समुदाय की भागीदारी
- आपदा प्रबंधन में स्थानीय लोगों का प्रशिक्षण और सक्रिय सहयोग।
- वन संरक्षण और पुनर्वनीकरण
- बड़े पैमाने पर पेड़ लगाना और पुराने जंगलों को बचाना।
उत्तराखंड की आपदाएं केवल प्रकृति की मार नहीं हैं, बल्कि हमारी विकास नीतियों और लापरवाही का भी नतीजा हैं। अगर समय रहते हमने सतत विकास, पर्यावरण संरक्षण और वैज्ञानिक योजना अपनाई, तो आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित और सुंदर उत्तराखंड मिल सकता है।
वरना, देवभूमि धीरे-धीरे आपदाओं की भूमि में बदल सकती है।