नेपाल में हाल ही में जो घटनाएँ घटीं, वे केवल एक विरोध आंदोलन नहीं बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति बन गईं। यह सिर्फ सोशल मीडिया पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ़ प्रदर्शन नहीं था, बल्कि पूरे सिस्टम के प्रति गुस्से का विस्फोट था।
घटना का आरंभ
घटना की शुरुआत तब हुई जब सरकार ने अचानक सभी बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगा दिया। फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, एक्स (ट्विटर) जैसे प्लेटफ़ॉर्म एक झटके में बंद हो गए। सरकार का कहना था कि यह कदम “राष्ट्रीय सुरक्षा और गलत सूचना पर नियंत्रण” के लिए उठाया गया है।
लेकिन यह निर्णय लोगों को नागवार गुज़रा। खासकर युवाओं को यह लगा कि उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी छीन ली गई है। सोशल मीडिया उनके लिए न केवल मनोरंजन का साधन था बल्कि विचार व्यक्त करने और रोज़गार के अवसरों का भी माध्यम था।
क्यों भड़का इतना बड़ा विरोध?
सोशल मीडिया बैन तो सिर्फ चिंगारी थी। असल गुस्सा कई सालों से भीतर ही भीतर सुलग रहा था।
- भ्रष्टाचार और भाई–भतीजावाद: नेताओं के बच्चों और रिश्तेदारों को ऊँचे पदों पर बैठाना, सरकारी ठेकों में पक्षपात और पारदर्शिता की कमी से जनता परेशान थी।
- युवा बेरोज़गारी: पढ़े-लिखे युवाओं को नौकरियाँ नहीं मिल रही थीं। जो अवसर थे भी, वे पैसे और सिफारिश वालों के लिए सुरक्षित समझे जाते थे।
- आर्थिक असमानता: आम लोग महँगाई से जूझ रहे थे जबकि सत्ता और राजनीतिक परिवार विलासिता में जी रहे थे।
- राजनीतिक अस्थिरता: बार-बार बदलती सरकारें, टूटी-फूटी नीतियाँ और कोई ठोस विज़न न होना लोगों में निराशा फैला रहा था।
इन सबके बीच सोशल मीडिया बैन ने यह संदेश दे दिया कि अब जनता की आवाज़ दबाई जाएगी — और यही बात युवाओं के लिए अस्वीकार्य थी।
कैसे फैला आंदोलन?
शुरुआत में लोग शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन सरकार की सख्त प्रतिक्रिया — कर्फ्यू, इंटरनेट बंद, पुलिस बल का इस्तेमाल — ने आग में घी डालने का काम किया।
प्रदर्शन तेज़ हो गए, लाखों लोग सड़कों पर उतर आए। संसद और सरकारी इमारतों के बाहर भीड़ जमा हो गई। कई जगह पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प हुई। आँसू गैस के गोले, रबर की गोलियाँ, यहाँ तक कि कुछ जगह गोलियाँ चलने की भी खबरें आईं। इस हिंसा में कई लोगों की जान गई और सैकड़ों घायल हुए।
सरकार का झुकना और बदलाव
लगातार बढ़ते दबाव और जनता के गुस्से को देखते हुए सरकार को पीछे हटना पड़ा। सोशल मीडिया बैन हटा दिया गया। लेकिन यह आंदोलन सिर्फ प्रतिबंध हटवाने पर नहीं रुका। लोगों ने राजनीतिक जवाबदेही की मांग शुरू कर दी। आखिरकार प्रधानमंत्री ने पद छोड़ दिया और अंतरिम सरकार बनाने की घोषणा की गई।
अब आगे क्या होगा?
नेपाल अब एक मोड़ पर खड़ा है। जनता चाहती है कि:
- भ्रष्टाचार पर सख्त कार्रवाई हो।
- राजनीतिक दल पारदर्शी बनें।
- युवाओं के लिए रोज़गार और अवसर पैदा हों।
- ऐसी घटनाएँ दोबारा न हों, इसके लिए कानून और नीतियाँ बेहतर बनाई जाएँ।
अस्थायी सरकार से उम्मीद है कि वह निष्पक्ष चुनाव कराएगी और लंबे समय से चल रही राजनीतिक अस्थिरता को खत्म करेगी।
क्या यह सही था?
अगर नैतिक दृष्टि से देखें, तो यह आंदोलन सही दिशा में था क्योंकि इसने जनता की आवाज़ बुलंद की। लोकतंत्र में जब सरकार जनता की बात नहीं सुनती, तब विरोध करना ज़रूरी हो जाता है।
लेकिन इसमें कुछ बातें चिंताजनक भी थीं:
- हिंसा और जान-माल का नुकसान दुखद है। इसे रोका जा सकता था अगर सरकार पहले ही संवाद का रास्ता अपनाती।
- विरोध के दौरान कानून-व्यवस्था बिगड़ना, संपत्ति को नुकसान पहुँचाना भी ठीक नहीं माना जा सकता।
कुल मिलाकर, यह आंदोलन एक चेतावनी है कि जब जनता की आवाज़ दबाई जाती है तो गुस्सा विस्फोटक बन सकता है। यह सत्ता के लिए भी सबक है कि पारदर्शिता, संवाद और जवाबदेही ही लोकतंत्र को मज़बूत बनाते हैं।