न्यायपालिका एवं संसद के बीच संबंध….

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 50 में शक्तियों के विभाजन को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है, जहाँ कार्यपालिका एवं विधायिका के बीच में आशिक शक्ति का बंटवारा तथा न्यायपालिका के संदर्भ में पूर्णतः शक्तियों का बंटवारा किया गया है। स्वतंत्रता के उपरांत से अब तक न्यायपालिका एवं संसद के बीच में कभी टकराव की स्थिति बनती है तो कभी संबंध मधुर हो जाते हैं, ऐसा क्यों होता है, इसे समझना बेहद जरूरी है।

विधायिका एवं कार्यपालिका का कार्य विधि निर्माण एवं लागू करवाने का होता है, जबकि न्यायपालिका का कार्य बनाई गई विधि की वैधानिकता को जाँचना होता है अर्थात् क्या कहीं विधि संविधान के आदर्शों के प्रतिकूल तो नहीं है। यह शक्ति न्यायपालिका को अनुच्छेद 13 एवं अनुच्छेद 32 से प्राप्त होती है।

स्वतंत्रता के बाद काफी अरसे तक न्यायपालिका एवं संसद के बीच टकराव नहीं देखा गया। शंकरी प्रसाद वाद में न्यायपालिका एवं संसद ने बहुत ही संयम का परिचय दिया। इसका मुख्य कारण शायद यह रहा कि, उस दौरान दोनों ही जगह बैठे लोग एक साथ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे. उनकी सोच, विचारधारा देश के लिए एक जैसी थी, यही कारण था कि, इनके बीच टकराव का कोई प्रश्न नहीं उठा। एक और कारण यह था कि, उस समय संसद में लगभग 70 प्रतिशत वकील थे जो कानूनी दाँवपेंच भली-भाँति जानते थे. इसलिए कानून बनाते समय ऐसी कोई भी चूक नहीं करते थे कि न्यायपालिका को बीच में आना पड़े।

बदलते परिवेश के साथ न्यायपालिका एवं संसद के बीच संबंध टकराते गए, वह चाहे न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला रहा हो या मूल अधिकारों के संशोधन का। यह टकराहट यहाँ तक पहुँच गई कि संसद द्वारा पारित विधेयक को न्यायपालिका संशोधित या रद्द करती तो न्यायपालिका के निर्णय को संसद। 17वीं या 25वाँ संविधान संशोधन विधेयक हो या फिर गोलकनाथ वाद में निर्णय ये सभी न्यायपालिका एवं संसद के बीच के संबंधों पर प्रकाश डालने के लिए काफी हैं। इसी क्रम में सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय हुआ 1973 में केशवानंद भारती बाद में, जब न्यायपालिका ने संसद की शक्ति को नियंत्रित करने के लिए “मूलभूत ढाँचा” का प्रतिवादन किया जो कहीं ना कही संसद के लिए बहुत बड़ा झटका था। इस निर्णय के अनुसार संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है, परंतु इससे संविधान का मूलभूत ढाँचा परिवर्तित नहीं होना चाहिए और यह न्यायपालिका निर्णय करेगी कि मूलभूत ढाँचा क्या है।

इस तरह न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए चाहे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग हो या फिर संसद द्वारा पारित अन्य अधिनियम, ये सभी संसद एवं न्यायपालिका के बनते बिगड़ते संबंधों को कहानी बताते हैं।

इस घटनाक्रम से निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि एक लोकतंत्र में न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका इन तीनों के बीच में शक्ति सामंजस्य एवं संतुलन की व्यापक स्तर पर आवश्यकता होती है। इनके आपसी टकराव से कहीं न कहीं लोकतंत्र एवं संविधान के मूल भाव को ठेस पहुँचती है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को शोभा नहीं देता।

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