युद्ध के समय, जब यह आशंका हो कि दुश्मन देश के शहरों पर हवाई हमला (aerial bombing) कर सकता है, तब सरकार द्वारा पूरे शहर या क्षेत्र में सभी प्रकार की रोशनी बंद करने का आदेश दिया जाता है। इसे ही ब्लैकआउट कहा जाता है।
उद्देश्य:
- दुश्मन के विमान रात में शहरों को ऊपर से न देख सकें।
- रोशनी बंद होने से शहरों की लोकेशन छिप जाती है, जिससे बमबारी करना कठिन होता है।
- नुकसान से बचाव किया जाता है — जैसे घर, फैक्ट्री, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डे आदि पर हमला न हो।
ब्लैकआउट के समय क्या-क्या होता था?
ब्लैकआउट का नियम | विवरण |
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घरों में लाइट जलाना मना | खिड़कियों पर काले पर्दे या कागज़ लगाना पड़ता था |
स्ट्रीट लाइट बंद | सड़कों पर अंधेरा छा जाता था |
गाड़ियों की हेडलाइट बंद या ढँकी | सफर के समय सिर्फ बहुत हल्की रोशनी |
सायरन बजाना | हमला शुरू होने या खत्म होने का संकेत |
सरकारी निगरानी | “ब्लैकआउट ऑफिसर” गश्त करते थे, जो नियम तोड़ने वालों को दंडित करते थे |
ऐतिहासिक उदाहरण: द्वितीय विश्व युद्ध में ब्लैकआउट
● इंग्लैंड:
- 1939 से 1945 तक हर रात ब्लैकआउट होता था।
- जर्मन लुफ्टवाफे (Luftwaffe – जर्मनी की वायुसेना) से बचने के लिए लंदन सहित सभी बड़े शहर अंधेरे में रहते थे।
भारत (ब्रिटिश शासन में):
- द्वितीय विश्व युद्ध के समय कोलकाता, मुंबई जैसे शहरों में ब्लैकआउट लागू किया गया था क्योंकि जापानी या जर्मन हमले की आशंका थी।
- रेलवे स्टेशनों पर भी लाइटें बंद कर दी जाती थीं।
ब्लैकआउट से जीवन पर प्रभाव:
- लोग मोमबत्ती या लालटेन से काम चलाते थे।
- अस्पतालों में अंधेरे में इलाज करना पड़ता था।
- स्कूल और ऑफिस जल्दी बंद हो जाते थे।
- डर और मानसिक तनाव आम बात थी।
युद्धकालीन ब्लैकआउट एक रक्षा रणनीति होती थी जिसका उद्देश्य दुश्मन की बमबारी से आम जनता, औद्योगिक क्षेत्र और सैनिक ठिकानों को बचाना था। यह नागरिकों के सहयोग से ही संभव होता था और कई देशों ने इसे युद्ध के दौरान अनिवार्य रूप से अपनाया था।