पलायन बनाम पुनर्वास: उत्तराखंड के गांवों की असल तस्वीर

उत्तराखंड राज्य पिछले कुछ दशकों से एक और पहचान के लिए प्रसिद्ध हो गया है — “पलायन की भूमि”। जहां एक ओर इसके प्राकृतिक सौंदर्य की मिसाल दी जाती है, वहीं दूसरी ओर इसके हजारों गांव खाली हो चुके हैं। सरकारें पुनर्वास की योजनाएँ बना रही हैं, लेकिन क्या वह पलायन की समस्या को वाकई रोक पा रही हैं?

इस लेख में हम उत्तराखंड के गांवों से हो रहे पलायन, इसके पीछे के कारण, इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और पुनर्वास के प्रयासों की असल तस्वीर को सामने लाएंगे।


🔷 पलायन की स्थिति: आंकड़ों में सच्चाई

उत्तराखंड में 2024 तक के सरकारी आँकड़ों के अनुसार:

  • राज्य में 16,793 गांव हैं, जिनमें से लगभग 1,400 गांव पूरी तरह से वीरान (घोस्ट विलेज) हो चुके हैं।
  • करीब 3,900 गांव ऐसे हैं, जहाँ की जनसंख्या 100 से भी कम रह गई है।
  • मुख्य रूप से पौड़ी, टिहरी, चमोली, बागेश्वर और पिथौरागढ़ जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।

🔷 पलायन के प्रमुख कारण

1. रोज़गार के अवसरों की कमी

गांवों में सरकारी और निजी रोजगार की भारी कमी है। कृषि आधारित आजीविका अब उतनी लाभकारी नहीं रही, और युवाओं को शहरों की ओर जाना मजबूरी बन गई।

2. स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता

बेसिक स्वास्थ्य सेवाएँ — जैसे डॉक्टर, नर्सिंग, अस्पताल आदि की घोर कमी है। आपातकालीन स्थिति में लोगों को कई किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है।

3. शिक्षा का अभाव

गांवों में उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं है। अधिकांश गाँवों में माध्यमिक स्तर तक ही शिक्षा उपलब्ध है। इससे बच्चों को शहरों की ओर जाना पड़ता है।

4. बुनियादी ढांचे की कमी

सड़क, बिजली, इंटरनेट, पानी जैसी सुविधाएँ या तो बहुत कमजोर हैं या बिल्कुल नहीं हैं। इससे लोगों में असंतोष और असुरक्षा की भावना बढ़ती है।

5. प्राकृतिक आपदाएं

भूस्खलन, बाढ़, बादल फटना और भूकंप जैसी घटनाएं लगातार लोगों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर रही हैं।


🔷 पलायन का प्रभाव

🌐 सामाजिक प्रभाव

  • पारंपरिक संस्कृति, लोककला और रीति-रिवाज धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं।
  • परिवार बिखर रहे हैं, बुजुर्ग अकेले रह जाते हैं।
  • महिलाओं पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है।

💸 आर्थिक प्रभाव

  • कृषि भूमि बंजर हो रही है।
  • पशुपालन और स्थानीय उत्पादों की घटती मांग।
  • गांवों की अर्थव्यवस्था ठप।

🌳 पर्यावरणीय प्रभाव

  • बंजर खेतों में जंगल फैल रहे हैं जिससे वन्यजीवों और इंसानों का टकराव बढ़ रहा है।
  • बिना निगरानी के वनों में आग लगने की घटनाएँ बढ़ रही हैं।

🔷 पुनर्वास की कोशिशें: कितनी सफल?

राज्य सरकार ने समय-समय पर कई योजनाएं चलाईं:

‘रिवर्स पलायन’ योजना

जहां सरकार ने यह कोशिश की कि लोग वापस गांव लौटें और उन्हें स्वरोजगार में मदद मिले। लेकिन यह बहुत सीमित स्तर पर ही सफल रहा।

मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना (MSY)

इस योजना के तहत लौटे प्रवासियों को लोन, सब्सिडी और प्रशिक्षण दिया गया। मगर यह भी केवल कुछ हज़ार लोगों तक सीमित रह गई।

हिम प्रहरी योजना और बायोफार्मिंग

कुछ क्षेत्रों में जैविक खेती को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों को फिर से जीवित करने की कोशिश की गई।

लेकिन इन योजनाओं की सबसे बड़ी कमी स्थायी निगरानी, प्रभावशाली क्रियान्वयन और व्यापक प्रचार की है।


🔷 कुछ उजाले की किरणें: सफल उदाहरण

🌿 च्योरी गांव (पिथौरागढ़)

यह गांव पलायन के कगार पर था, लेकिन बकरी पालन और हर्बल खेती के जरिए गांव के युवाओं ने इसे फिर से जीवित कर दिया।

🐝 रुद्रप्रयाग जिले के कई गांवों में मधुमक्खी पालन

यहां युवाओं ने शहद उत्पादन से अच्छा रोजगार तैयार किया है, जिससे आसपास के गांवों ने भी प्रेरणा ली।

🌱 बायो-टूरिज्म मॉडल

कुछ गांवों ने ‘होमस्टे’ और इको-टूरिज्म के जरिए गांव में रोजगार उत्पन्न किया है, जो पलायन को रोकने में सहायक साबित हो रहा है।


🔷 समाधान क्या हो सकते हैं?

  1. गांव-केंद्रित विकास नीति बनाना।
  2. स्थानीय उत्पादों को राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से जोड़ना।
  3. ई-गवर्नेंस और डिजिटल कनेक्टिविटी बढ़ाना।
  4. छोटे उद्यमों और स्टार्टअप्स को गांवों तक पहुंचाना।
  5. स्वास्थ्य, शिक्षा और ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर को प्राथमिकता देना।

🔷 निष्कर्ष

उत्तराखंड का पलायन एक सामाजिक त्रासदी के रूप में उभर रहा है। गांव केवल रहने की जगह नहीं, बल्कि एक संस्कृति, विरासत और आत्मनिर्भरता का प्रतीक होते हैं। यदि हम चाहते हैं कि उत्तराखंड आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित, आत्मनिर्भर और समृद्ध बने, तो पुनर्वास की योजनाओं को कागज़ से जमीन तक लाना होगा।

पलायन रोकना केवल एक प्रशासनिक काम नहीं, बल्कि यह समाज, सरकार और युवाओं की सांझा जिम्मेदारी है।


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