उत्तराखंड की जनजातियाँ – भोटिया

उत्तराखंड की भोटिया जनजाति सबसे प्राचीन मानी जाती है।

और यह जनजाति खस राजपूतों से अपनी उत्पत्ति मानते हैं। इस वजह से भी इन्हें उत्तराखंड की प्राचीन जनजाति माना जाता है। भोटिया शब्द की उत्पत्ति –भोट या भूट शब्द से हुई है।

भोटिया जनजाति की बहुत सी उपजातियाँ है-

जो इस प्रकार हैं – मारछा ,तोलछा , जोहारी,शौका , दरमियां, चौंदासी ,व्यासी ,जाड़ ,जेठरा ,छापड़ा (बखरिया )

इनका आवास एवं बस्तियां-

भोटिया जनजाति महा हिमालय के तलहटी क्षेत्रों में निवास करती हैं।

भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप मकान, छोटी दरवाजे, मकानों में प्राय: लकड़ी का अधिक इस्तेमाल देखने को मिलता है।

इनकी बस्तियां निम्न स्थानों पर पाई जाती है-

विष्णु गंगा घाटी में माणा , वनाकुली, औध गांव और गांव में ( गढ़वाल में )

जोहार घाटी मुनस्यारी क्षेत्र व धारचूला में।(पिथौरागढ़ में )

भागीरथी घाटी में नेलांग तथा जाडंग गांव में। ( उत्तरकाशी में )

मुखाकृति एवं वेशभूषा-

भोटिया जनजाति तिब्बती एवं मंगोलियन जाति का मिश्रण है, छोटा कद, गोल चेहरा, छोटी आंखें, चपटी नाक, गोरा रंग इनकी शारीरिक विशेषताएं हैं। अगर इनके परिधानों की बात करें तो पुरुषों का अंगरखा रंगा ( पुरुषों का ऊपर पहनने वाला वस्त्र) , पेजामे को गैजू या खगचसी , ऊनी जूते जिन्हें बाँखे कहलाते मुख्य परिधान हैं . स्त्रियों के परिधान में च्यूमाला,च्यूंक्ला ,च्यूबती ,ब्यूजय तथा कम्बयै प्रमुख है ।

भोटिया जनजाति के आभूषण-

भोटान्तिक बोली में आभूषणों को साली -पुली कहां जाता है। बलडंग , खोंगली ,मन्सली महिलाओं के गले के आभूषण है। वीरावाली ,छाँकरी वाली , पतेली वाली सिर के प्रमुख आभूषण है । अंगूठी को लकक्षेप कहा जाता है।

भोटिया जनजाति का भोजन-

भोजन में छाकू ( भात ),छामा ( दाल, साग) तथा कूटो ( रोटी) प्रमुख है। मांस इनका लोकप्रिय भोजन है। पेय पदार्थ में ज्या प्रमुख है जो चायपत्ती ,नमक ,मक्खन आदि से बनाई जाती है. मदिरा को चयत्कि छंग कहा जाता है। जौ , गेहूं , मड़ुवा का सत्तू भी लोकप्रिय है।

सामाजिक जीवन –

भूमौ – शोकाओ में एक संस्कार के अनुसार जब नवजात शिशु 3 माह का होता है तो उसे नए वस्त्र जाते हैं। इसे भूमौ संस्कार कहा जता है. बिरादरी का कोई बुजुर्ग या ऐसा बालक जिसकी भाई बहन हों , शिशु को अपनी पीठ पर एक चादर के सहारे बात कर घर के मुख्य द्वार से नौ बार आता जाता है।

प्रस्यावोमो – यह संस्कार बालक के तीसरे पांचवें या 7 वर्ष में संपन्न की जाती है। इस अवसर पर गांव के लोगों तथा रिश्तेदारों को आमंत्रित किया जाता है। तीन ,पाँच ,सात या नौ व्यक्ति कैंचीया लेकर बच्चे के केश ( बाल) उतारते हैं।

बुढ़ानी -भोंटातीयों में बालक की 20 वर्ष की अवस्था प्राप्त से पूर्व करें व्यास पट्टी में बुढ़नी तथा चौदास में सभा कोमो के रूप में उत्सव मनाया जाता है।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य –

इनमें पितृसत्तात्मक व्यवस्था पाई जाती है। भूम्याल ,ग्वाल , बंग रंग चिम , फैला तथा घूरमा इनके प्रमुख देवता है। इनमे एक पत्नी प्रथा प्रचलित है। प्रत्येक 12 वर्ष के अंतराल पर कंडाली नामक उत्सव मनाया जाता है। आषाढ़ आगमन को जेठ पूजई के रूप में मनाते हैं, अपने संबंधियों को यह स्वारा कहते हैं।

अर्थव्यवस्था-

मुख्यतः इनका आर्थिक जीवन कृषि , पशुपालन, व्यापार व ऊनी वस्त्र निर्माण में संलग्न है ।

झूम खेती के आधार पर काटिल विधि से कृषि प्रचलित है। भेड़ ,बकरी व जीबू (पहाड़ी याक ) आदि पशुओं को पालते हैं।

तिब्बत के हुणिया व्यापारियों से प्राचीन भोटिया व्यापार संचालित था जो 1962 के भारत – चीन युद्ध के बाद समाप्त हो गया। उत्तराखंड की सबसे प्राचीन जनजाति भोटिया जनजाति को ही माना जाता है.

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