उत्तराखंड पहाड़ों की गोद में बसी उन असंख्य जनजातियों का घर भी रहा है जिन्होंने यहाँ की संस्कृति, बोली और परंपराओं को जन्म दिया। आज इनमें से कुछ जनजातियाँ इतिहास के पन्नों में सिमट गई हैं। आखिर ये जनजातियाँ कौन थीं? ये लुप्त क्यों हुईं? क्या इनके पीछे कोई रहस्य छुपा है? आइए इस रोचक खोज की शुरुआत करें।
उत्तराखंड की प्रमुख लुप्त हो चुकी जनजातियाँ:
1. कुलिंद जनजाति:
- उल्लेख: महाभारत और प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में कुलिंदों का ज़िक्र है।
- क्षेत्र: वर्तमान टिहरी, पौड़ी और कुमाऊं के कुछ भाग।
- विशेषता: ये योद्धा जाति थी और छोटी-छोटी गणराज्यों में बटी थी।
- लुप्त होने का कारण: मौर्य और कुषाण आक्रमणों के कारण इनकी सत्ता समाप्त हुई, धीरे-धीरे इनमें से कुछ ने राजपूतों में विलय कर लिया।
2. किरात (या किराति):
- प्राचीन नाम: ‘हिमालयवासी आदिवासी’
- संस्कृति: शिकार, तंत्र-विद्या और देवी पूजा से जुड़ी परंपराएँ।
- लुप्त होने का कारण: आर्य समाज के प्रसार और ब्राह्मणवादी समाज के दबाव में इन्होंने पहचान खो दी या पहाड़ी राजाओं में समाहित हो गईं।
3. रौतेला / राउत जनजाति:
- क्षेत्र: उत्तरकाशी और चमोली में कभी पाई जाती थीं।
- कार्य: पशुपालन और घुमंतू जीवन शैली।
- लुप्त होने का कारण: स्थायी बस्तियों की स्थापना और वन विभाग की नीतियों ने इनके पारंपरिक जीवन को बाधित किया।
विलुप्ति के प्रमुख कारण:
1. राजनीतिक आक्रमण और विलय:
- कुषाण, मौर्य और गढ़वाल-कुमाऊं राज्यों के अधीन इन जनजातियों का स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया।
- कई जनजातियाँ नई जातियों में विलीन हो गईं और उनका नाम इतिहास से मिट गया।
2. धार्मिक समायोजन:
- ब्राह्मणवादी परंपराओं के प्रसार से इन जनजातियों की पुरानी परंपराएँ “अमान्य” घोषित हो गईं।
- कई जनजातियों ने हिन्दू समाज में घुल-मिल कर अपनी सांस्कृतिक पहचान खो दी।
3. भाषाई और सांस्कृतिक विलयन:
- उनकी बोलियाँ (जैसे प्राचीन किरात भाषा) लुप्त हो गईं और गढ़वाली/कुमाऊंनी में समाहित हो गईं।
4. आधुनिक विकास और विस्थापन:
- सड़कों, बाँधों और शहरों के विकास ने इन जनजातियों को उनकी जड़ों से उखाड़ दिया।
- शिक्षा और नौकरी के लालच में नई पीढ़ी ने अपनी परंपरा को छोड़ दिया।
रहस्य और रोचक तथ्य:
1. लुप्त जनजातियों की देवी-पूजा परंपरा:
- कुलिंदों की देवी “कुलिनदेई” की पूजा अब भी कुछ गाँवों में होती है।
- किरात तंत्र साधना के कुछ तत्व आज भी कुछ मंदिरों में छुपे रूप में जीवित हैं।
2. वंशानुक्रम और डीएनए अध्ययन:
- हाल के अध्ययनों से पता चला है कि कुछ लुप्त जनजातियों के डीएनए आज भी पहाड़ी जनजातियों में विद्यमान हैं, जैसे जौनसारी और भोटिया।
3. स्थानीय लोकगाथाओं में जीवित स्मृति:
- राउत जाति की वीरगाथा “राउत की रानी” आज भी कुछ इलाकों में गाई जाती है, जिसमें उनकी संस्कृति की झलक मिलती है।
समाधान और संरक्षण की आवश्यकता:
- एथनोग्राफिक अध्ययन:
इन जनजातियों के शेष तत्वों को वैज्ञानिक व सांस्कृतिक रूप से दर्ज करना ज़रूरी है। - स्थानीय संग्रहालयों और अभिलेखागारों की स्थापना:
इन जनजातियों की वस्तुएँ, चित्र, पूजा-पद्धति आदि का संरक्षण जरूरी है। - लोककथाओं का संकलन:
पहाड़ी लोकगीतों और कहानियों में इन जनजातियों की परछाईं आज भी जीवित है – उन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए। - नयी पीढ़ी में जागरूकता:
स्कूल और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में इन जनजातियों को शामिल कर उनकी स्मृति को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
उत्तराखंड की ये जनजातियाँ भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनके पदचिन्ह अब भी संस्कृति, रीति-रिवाज़ों और लोककथाओं में जीवित हैं। इनके लुप्त होने की कहानी केवल इतिहास नहीं, बल्कि एक चेतावनी है – कि अगर हमने अपने अतीत को नहीं संजोया, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल नाम जानेंगी, पहचान नहीं।