(Traditional Folk Culture and Folk Dramas of Uttarakhand)
उत्तराखंड केवल हिमालय की गोद में बसा एक राज्य नहीं है, बल्कि यह भारत की जीवंत लोकसंस्कृति का एक प्रमुख केंद्र भी है। यहाँ की संस्कृति में लोकगीत, लोकनृत्य, वाद्ययंत्र, रीति-रिवाज और पारंपरिक लोकनाट्य प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यह लोकसंस्कृति पीढ़ियों से मौखिक रूप में संरक्षित होती आई है और आज भी ग्रामीण जीवन में जीवंत है।
🔷 उत्तराखंड की प्रमुख लोकसंस्कृति के घटक:
1. लोकगीत (Folk Songs):
- जागर गीत – देवी-देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते हैं।
- मंगल गीत – शादी-ब्याह और शुभ कार्यों में।
- बिरहा/वीर रस गीत – युद्ध गाथाओं और वीरों की कहानियों पर आधारित।
- पंडवानी – महाभारत की कथाओं पर आधारित गायन शैली।
2. लोकनृत्य (Folk Dances):
- छोलिया नृत्य (कुमाऊँ): युद्ध नृत्य, तलवारों का प्रयोग होता है।
- झोड़ा और चांचरी: मेलों और सामूहिक आयोजनों में नृत्य।
- थोली (गढ़वाल): कथा-आधारित नृत्य शैली।
3. लोकवाद्य (Folk Instruments):
- ढोल-दमाऊं, हुड़का, रणसिंघा, भैंसुली – पारंपरिक वाद्य यंत्र जो लोकनृत्य और गीतों में प्रयोग होते हैं।
🔷 पारंपरिक लोकनाट्य (Folk Theatre of Uttarakhand):
1. जागर (Jagar):
- यह एक धार्मिक लोकनाट्य है जिसमें देवी-देवताओं को बुलाया जाता है।
- जागर गायन व “ओजागर” द्वारा किया जाता है।
- इसमें मान्यता है कि देवता किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करते हैं।
2. थोली (Tholi):
- गढ़वाल क्षेत्र का प्रसिद्ध लोकनाट्य।
- यह आमतौर पर कथात्मक रूप में होता है – धार्मिक, ऐतिहासिक या सामाजिक विषयों पर आधारित।
3. पंडवानी (Pandavani):
- महाभारत के पांडवों की गाथाओं पर आधारित यह शैली नाटक, गीत और संवादों का मिश्रण होती है।
- इसे विशेष अवसरों पर रात भर प्रस्तुत किया जाता है।
4. रामलीला और रासलीला:
- गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों क्षेत्रों में यह धार्मिक नाट्य रूपों में देखी जाती है।
- गाँवों के लोग मिलकर मंचन करते हैं, जिससे सामाजिक एकता भी बढ़ती है।
🔷 लोकसंस्कृति की विशेषताएँ:
- यह संस्कृति प्राकृतिक परिवेश से जुड़ी होती है – खेत, जंगल, पशुपालन, पर्व और ऋतु।
- स्त्री और पुरुष दोनों की सक्रिय भागीदारी होती है।
- सामूहिकता, पारंपरिक ज्ञान और धार्मिकता इसका मूल आधार हैं।
🔷 उत्तराखंड सरकार और लोकसंस्कृति संरक्षण:
- उत्तराखंड संस्कृति विभाग विभिन्न मेलों, आयोजनों और महोत्सवों का आयोजन करता है।
- पारंपरिक कलाकारों को पुरस्कार व मान्यता दी जाती है।
- उत्तरायणी, नैनीताल शरदोत्सव, गढ़वाल महोत्सव जैसे आयोजन लोकसंस्कृति को जीवित रखने में मदद करते हैं।
🔷 चुनौतियाँ:
- पश्चिमीकरण और नई पीढ़ी की रुचि में कमी।
- पारंपरिक ज्ञान के लुप्त होने का खतरा।
- डिजिटल माध्यमों का अभाव, दस्तावेजीकरण की कमी।
🔷 समाधान:
- विद्यालयों में लोककला पाठ्यक्रम में शामिल करना।
- युवाओं को स्थानीय भाषा और संस्कृति से जोड़ना।
- डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लोकनाट्यों का वीडियो और आर्काइव बनाना।
उत्तराखंड की पारंपरिक लोकसंस्कृति और लोकनाट्य न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि यह हमारे समाज की पहचान, इतिहास और जीवन शैली के संवाहक भी हैं। इनका संरक्षण केवल सांस्कृतिक उत्तरदायित्व नहीं, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर को बचाने का कार्य है।